Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[१२२]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् | अजवायन २-२ भाग, काला नमक ४ भाग और अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर भली भांति खरल | इन सबके समान कौड़ी भस्म लेकर प्रथम पारे कीजिए और उसे बेलपत्रके रस, कपासके काथ, गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य शालि धानके काथ, दूधी, शालीशाककी जड़, औषधोंका चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए । कुडेकी छाल और जलपीपलके पत्तोंके रसकी एक इसे नित्य प्रति तक्रमें मिलाकर सेवन करनेसे एक भावना देकर १-१ रत्तीकी गोलियां बना ग्रहणी रोग नष्ट होता है । (मात्रा–३-४ रत्ती।) लीजिए।
(१६०६) ग्रहणीगजकेसरी रसः _इन गोलियोंको ३ दिन तक १ पल (५ तोले)
( वृ. नि. र.; यो. र ; र. चं.; वै. र. । संग्र.; दधि मस्तुके साथ सेवन करनेसे सैंकड़ों औषधोंसे शान्त न होने वाली प्रबल संग्रहणी भी नष्ट हो
व वृ. यो. त. । त. ६७ ) जाती है।
गन्धं पारदमभ्रकं च दरदं लोहश्च जातीफलम् ।
| बिल्वं मोचरसं विषं प्रतिविषं व्योपं तथाधातकी॥ यह, आम, शूल, ज्वर, खांसी, श्वास, शोथ | और प्रवाहिकाका नाश करती हैं।
भङ्गामप्यभयां कपित्थजलदौदीप्यानलौदाडिमम् , ग्रहणी रोगमें रक्तस्रावक पदार्थोंसे परहेज़
टङ्काद्भस्मकलिङ्गकान्कनकज वीजं च यक्षेक्षणम् ।
| एतत्तुर्यमफेनमेतदखिलं संमद्य संचूर्णयेत । करना चाहिए।
धत्तूरच्छदजै रसैःसुमतिमान्कुर्यान्मरीचाकृतिम् ।। (१६०५) ग्रहणीकपाटो रसः :
दत्ता सा ग्रहणीगदं सरुधिरं सामं सशूलं चिरा(र. रा. सु. वै. र.; वृ. नि. र. । संग्रहणी) तीसारं विनिहन्ति जति सहितांतीत्रांविशचीमपि पारदाद्विगुणो गन्धस्ताभ्यां तुल्यं कटुत्रिकम्। साध्यासाध्यमपि स्वयं परिहरेदुक्तानुपानैरपि । अजाजी टकणं धान्यं हिङ्गजीरयवानिका ॥ नाना तु ग्रहणीमतङ्गजमदध्वंसीभकण्ठीरवः ।। प्रत्येक द्विगुणं सूताचकश्च चतुर्गुणम् ।
शुद्ध गन्धक, शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, सर्वेषाञ्च समा देया दग्धा सुज्ञैर्वराटिका ॥
| हिङ्गुल ( शंगरफ) लोह भस्म, जायफल, बेलगिरी, सर्व एकीकृतं चूर्ण माषमात्रमितं ततः। | मोचरस, मीठा तेलिया (शुद्र ), अतीस, सोंठ, तक्रणालोडय.मतिमान् भक्षयेत्सततं नरः॥ | मिर्च, पीपल, धायके फूल, भांग, हर्र, कैथका गूदा, ग्रहणीकपाटको ह्येष हितः स्याद् ग्रहणीगदे॥ | नागरमोथा, अजवायन, चीता, अनार, सुहागेकी
शुद्ध पारद १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, खील, इन्द्रजौ, धतूरेके बीज ( शुद्ध ) और राल त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल)) ३ भाग, और जीरा, समान भाग तथा अफीम इन सबसे चतुर्थांश -सुहागेकी खील, धनिया, हींग, काला जीरा तथा | लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए
१ भृष्टामप्येति पाठान्तरम्
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