Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[ १८४ ]
भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
[ चकारादि
सफेद चन्दन, लाल चन्दन, चीड़वृक्षका | लवङ्गव्योषकङ्कालं पलिकानि प्रकल्पयेत् । निदध्यान्मासमेकं तु घृतभाण्डे सुसंस्कृते ॥ चतुष्पलां पिवेन्मात्रां प्रातः पीतं नियच्छति । सर्वगुल्मविकारांश्च प्रमेहांश्चैव विंशतिम् ॥ प्रतिश्यायं क्षयं कासमष्टीलां वातशोणितम् । उदराण्यन्त्रवृद्धिं च चविकाख्यो महासवः ॥
बुरादा, देवद्वारका बुरादा, दारूहल्दी, निसोत, चीतेकी जड़, अगर, आमला, अगस्ति पुष्प (अगथियाके फूल) शतावर, पाषाण भेद (पखानभेद), बासेकी जड़की छाल, दोनों प्रकारकी सारिवा, लक्ष्मणाकी जड़, बबूल और बरनेकी छाल १-१ पल ( ५-५ तोले ), मुनक्का २० पल, धायके फूल १६ पल, खांड १०० पल और सोना मक्खी भस्म आधा पल लेकर सबको कूटकर २ द्रोण ( ३२ सेर ) पानी में मिलाकर मिट्टी पात्रमें भर कर मुखर राव ढककर कपड़ मिट्टी कर दीजिए । और १ मास पश्चात् निकाल कर छान लीजिए ।
श्री महेशद्वारा कल्पित यह "चन्दनासव शुक्रदोष, रजोदोष, भयङ्कर मूत्रविकार, अनेक प्रकारके प्रमेह, आठ प्रकारका मूत्रकृ छू, चार प्रकारकी अश्मरी, १३ प्रकारके मूत्राघात, अन्त्र - वृद्धि, पाण्डुरोग, कामला, हलीमक, खांसी, श्वास, कुष्ट, अग्निमांद्य, अरुचि, और सोजाकका नाश करता है ।
(१८१३) चविकासवः
(ग. नि. । आस.; यो. र. । अजी. ) चविकायास्तुलार्द्धन्तु तदर्धे चित्रकस्य च । वाष्पिका पुष्करं मूलं षड्ग्रन्था हपुषा शठी || पटोलमूलत्रिफलायवानीकुटजत्वचः । विशाला धान्यकं रास्ता दन्ती दशपलोन्मिता || कृमिमुस्तमञ्जिष्ठा देवदारु कटुत्रिकम् । भागान्पञ्चपला नेतानद्रोणेऽम्भसःपचेत् ॥ द्रोणशेषेरसे पूते देयं गुडशतत्रयम् । घातक्या विंशतिपलं चातुर्जातं पलाष्टकम् ॥
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चव्य ५० पल, चीता २५ पल, कालाजीरा, पोखरमूल, बच, हाउवेर, कचूर, पटोलकी जड़, हर्र, बहेड़ा, आमला, अजवायन, कुड़ेकी छाल, इन्द्रायन, धनिया, रास्ना और दन्तीमूल १० -१० पल तथा बायबिडंग, मोथा, मजीठ, देवद्वार, सोंठ, मिर्च, और पीपल ५ - ५ पल ( २५-२५ तोले ) लेकर कूटकर ८ द्रोण ( १२८ सेर ) पानी में पकाइये । जब १ द्रोग जल शेष रह जाय तो छानकर उसमें ३०० पल गुड़, २० पल धायके फूल, २ - २ पल तेजपात, इलायची, दालचीनी और नागकेसर तथा १ - १ पल ( ५ - ५ तोले ) लौंग, सौंठ, मिर्च, पीपल और कंकोलका चूर्ण मिलाकर घृतसे चिकने किये हुवे स्वच्छ मिट्टी के पात्र में भरकर इसके मुखको कपर मिट्टीसे भली भांति बन्द करके रख दीजिए और एक मास पश्चात् निकालकर छान लीजिए ।
इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ४ पलकी मात्रानुसार सेवन करने से समस्त प्रकारके गुल्म, २० प्रकारके प्रमेह, जुकाम, खांसी, क्षय, अटीला, वातरक्त, उदरविकार और अन्वृद्धि, नष्ट होती है ।
( व्यवहारिक मात्रा - १ | तोले से २|| तोले तक समान भाग पानी में मिलाकर । )
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