Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[२९४ ]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[जकारादि
उदराण्यन्त्रवृद्धिं च रक्तपित्तं त्वगामयम् । (२१४३) ज्वरभैरवरसः ( १.) श्वयथुश्च शिरःशूलं वातामयरुजापहम् ॥
(र. का. धे. । अधि. १) ज्वरभैरवसंज्ञन्तु भैरवेण कृतं शुभम् ॥
पलैकं पारदं शुद्धं गन्धकश्च पलोन्मितम् ।
मर्दितं कज्जलाभासं क्षिपेत्ताम्रस्य सम्पुटे ।। सोंठ, त्रायमाणा, नीमकी छाल, धमासा, हर्र,
कृत्वा तां पिठरीमध्ये शरावेण पिधापयेत् । नागरमोथा, बच, देवदारु, कटेली, काकड़ासिंगी, सन्धिलेपं ततःकृत्वा भस्मना परिपूरयेत् ॥ शतावर, पित्तपापड़ा, पीपलामूल, इन्द्रायन, पोखर
| मन्दादिवह्निना यामषटकं तद्विपचेद्भिषक् । मूल, कचूर, मूर्वा, पीपल, हल्दी, दारुहल्दी, लोध,
स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य पलार्ध वलिना दृढम् ॥ चन्दन, नीलोत्पल, कुडेको छाल, इन्द्रजौ, मुलैठी,
| मर्दयित्वा शुक्तिकायाःस्वरसेन विभावयेत् । चीता, सहजना, खरैटी, अतीस, कुटकी, मूसली,
| तक्रेण मर्दयत्किञ्चित्स्वेदयेत्तच्छनैःशनैः ।। पद्माख, अजवायन, शालपर्णी, कालीमिर्च, गिलोय,
भावयेत्तुलसीनीरैर्देशवारं प्रयत्नतः । बेलकी छाल, सुगन्धबाला, तालाबकी पापड़ी (जमी
त्रिर्नागबलारसतो भावितः शुद्धिमाप्नुयात् ॥ हुई मिट्टी ) तेजपात, दारचीनी, आमला, पृष्टपर्णी, |
नागवल्लीरसेनैव त्रिगुञ्जासम्मितो ज्वरे । पटोलपत्र, गन्धक, शुद्ध पारद, लौह भस्म, अभ्रक
| जन्तोर्जीर्णज्वरे देयः पथ्यं मुद्रौदनं हितम् ॥ भस्म, शुद्ध मनसिल, समान भाग और चिरायता
| शुलमन्दानलं गुल्ममतिसारं गुदाकरान् । सबसे आधा । प्रथम पारे गन्धककी कजली बना
कासं श्वासं जयेच्छीघं तत्तद्रोगानुपानतः॥ लीजिए पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाइये।
ज्वरभैरवनामाऽयं निर्मितो रससागरे ॥ इसे दोष और बलाबलके अनुसार योग्य
१-१ पल शुद्ध पारद और शुद्ध गन्धकको मात्रामें सेवन करना चाहिए ।
एकत्र घोटकर कज्जली बनाइये और इस कजली को यह “ उचर भैरव " नामक चूर्ण पृथक् पृथक् उसके बराबर ताम्रके सम्पुटमें बन्द करके उस दोषोंसे उत्पन्न, ज्वर, विषम ज्वर, सन्निपात ज्वर, सम्पुटको एक हाण्डीमें रखकर उसको (सम्पुटको) द्वन्द्वज चर और मानस ज्वर, प्राकृत ज्वर, वैकृत शरावसे ढक दीजिए और सन्धिको चूने और ज्वर, सौम्य ज्वर, तीक्ष्ण ज्वर, अन्तर्गत ज्वर, शहदके मिश्रणसे बन्द करके हाण्डीको राखसे भरबहिर्गत ज्वर, निराम ज्वर, एवं अनेक देशोंके कर अग्निपर चढ़ा दीजिए और ६ पहर तक क्रमशः पानीसे और विरुद्धौषधके सेवनसे उत्पन्न ज्वरको मृदु, मध्यम तीब्राग्नि दीजिए। इसके पश्चात शीघ्र नष्ट कर देता है । इसके अतिरिक्त इसके हांडीके स्वांग शीतल हो जाने पर उसके भीतरसे सेवनसे अग्निमांद्य, यकृत् , तिल्ली, पाण्डु, अरुचि, सम्पुटको निकालकर उसमें आधा पल शुद्ध गन्धक उदररोग, अन्त्रवृद्धि, रक्तपित्त, त्वक्रोग, सूजन, मिलाकर (ताम्र सहित) मर्दन कीजिए और फिर शिरशूल और वातव्याधिका भी नाश होता है। उसे १ दिन चुकेके रसमें घोटकर गोला बना
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