Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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कल्पप्रकरणम् ] द्वितीयो भाग ।
[३९७ ] इन दोनों विधियों से किसी एक विधिके | गये हों तो भी इस प्रयोगसे शीघ्र आराम हो द्वारा तैल निकालकर कांच या चीनी आदिके जाता है। पात्रमें भरकर और उसका मुख अच्छी तरहसे बन्द यह तैल तीसरे दिन पीना चाहिए और इस करके उसे गोबरमें दबा देना चाहिए; एवं १५ प्रकार एक मास तक प्रयोग जारी रखना चाहिए। दिन पश्चात् निकालकर सेवन करना चाहिए। | अथवा रोगीके बलाबल का विचार करके नित्य
तुवरक तैल सेवन करनेसे पहिले स्नेहन, । प्रति प्रातः सायं सेवन कराना चाहिए । इसके स्वेदन, वमन और विरेचन द्वारा शरीर शुद्धि | सेवनसे कुष्टीके शरीरसे पुरानी चमड़ी इस प्रकार अवश्य कर लेनी चाहिए और फिर शुभ दिनमें दूर हो जाती है कि जिस प्रकार सर्पके शरीरसे प्रातःकाल थोड़ा भात खाकर १ कर्ष (१। तोला) | काचली । तुवरक तैल पीना चाहिए अथवा तैलको भातमें मिलाकर खाना चाहिए।
(२५५३) त्रिफलाकल्पः (ग. नि.। कल्पा .) तैल सेवन करते समय मनमें इस प्रकारके | हरीतकी चामलकं विभीतकमिति त्रयम् । विचार करने चाहिएं कि "हे महावीर्य, मजसार!
त्रिफलेति समाख्याता तच ज्ञेयं फलत्रयम् ॥ तुवरक तैल ! तू समस्त धातुओंको शुद्ध कर ।
इयं रसायनकरा त्रिफलाऽक्ष्यामयापहा । तुझे ऐसा करनेके लिए शंखचक्रगदाधारी विष्णु
रोपणी त्वग्गदले दमेदोमेहकफास्रजित् ॥ भगवान आज्ञा देते हैं, तू उनकी आज्ञाका पालन
वरोत्तमा च त्रिफला स्मृता श्रेष्ठा फलत्रयम् । कर !” इस प्रकार तैल पीनेसे शरीरके समस्त दोष
त्रिफला कफपित्तन्त्री मेहकुष्ठविनाशिनी ॥ निकल जाते हैं। प्रातःकाल तैल पीकर सायंकालको
चक्षुष्या दीपनी चैव विषमज्वरनाशिनी । घृत और लवण रहित शीतल यवागू खानी
नाशयेद्राजयक्ष्माणमझेगुल्मेषु पूजिता ॥ चाहिए । इसी प्रकार यह तैल पांच दिन पीना
वमिकण्डूप्रशमनी नाडीव्रणविशोधिनी । चाहिए और पथ्य पालन करना चाहिए।
दृष्टिप्रसादजननी मेधास्मृतिविवर्धिनी ॥ इसी तैलको ३ गुने खैरसारके काथमें घृतान्विता वा मधुनान्विता वा मिलाकर तैलमात्र शेष रहने तक पकाकर छान __गुडान्विता तैलसमन्विता वा। लेना चाहिए । इसे भी पूर्वोक्त विधिसे ही एक | एका हि नित्यं मनुजैःप्रयोज्या मास पर्यन्त सेवन करना चाहिए । तथा शरीरपर सर्वामयानां शमनी महार्थी ।। भी इसीकी मालिश करनी चाहिए।
कुष्ठरोगीका स्वर बिगड गया हो, नेत्र लाल वातरोगेषु तैलेन, पित्तरोगेषु सर्पिषा । रहते हों, अङ्ग गल गए हों या उनमें कोडे पड़ | कफरोगेषुमधुना, प्रयोज्या त्रिफला नरैः॥
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