Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[४४४]
भारत-भैषज्य रत्नाकरः। काथके साथ देनेल पाण्डु, विपादिका (बिवाई) | वल्लमात्रं समरिचं गुडेन सह भक्षयेत् । और रक्त पित्त नष्ट होता है।
तत्र तैलं तैलपक्कमन्नं पर्युषितं दधि । कृष्णकुष्ठ और सुषुप्तिमें यह रस सेवन कराया वर्जयेदिति केषाश्चिन्मते शीतज्वरं जयेत् ।। जाप तो उसके साथ गिलोय और असनाकी छाल शुद्ध हरताल और शुद्ध भिलावे समान भाग का काथ पिलाना चाहिये।
लेकर सबको एकत्र कूटकर ३ दिन तक आकके ___ यह रस सभी रोगोंमें २१ दिन तक सेवन दूधमें अच्छी तरह घोटकर टिकिया बनावें और कराना चाहिये।
उसे सुखाकर मिट्टीके शरावोंमें बन्द करके ऊपर यदि इसे उदम्बरकुष्ठमें प्रयोग किया गया। अच्छी तरह कपरौटी करदें और सुखाकर लघुपुटमें हो तो औषध बन्द करनेके बाद भी दो मास तक फूंक दें। जब सम्पुट स्वांग शीतल हो जाय तो मूंगकी दाल भात और घृत ही खिलाना चाहिये । उसमें से औषधको निकालकर पीसकर रखें । __ कृष्णवर्णके कुष्ठमें नीमके पञ्चाङ्ग और अर- इसमेंसे ३ रत्ती औषध कालोमिर्चके, चूर्ण हरके पञ्चाङ्गका काढ़ा बनाकर उसके साथ रस और गुड़के साथ मिलाकर खिलानेसे शीतज्वर सेवन कराना और पथ्य में घृतयुत् भात देना नष्ट होता है। चाहिये।
___किन्हीं किन्हींका मत है कि इसपर तैल यह रस चाहे जिस रोगमें क्यों न सेवन | और तैलमें बना हुवा पक्कान्न तथा बासी दहीसे कराया जाय इसके खिलानेके पश्चात् ५ तोले । परहेज़ करना चाहिये। आमलेको पीसकर मिश्री मिलाकर खिलाना चाहिये
तालकेश्वररसः और साधारणतः पथ्यमें मूंगकी दाल, भात और । (र.चं.;धन्वं. र.रा.सु.,र.का.धे.;र.सा.सं.।वातव्या.) घी देना चाहिये । यदि शरीर काला हो जाय तो तालकादिवटि सं. २६३९ देखिये । उसमें २ मास सक विकङ्कतके पञ्चाङ्गका काथ पिलाना | हरताल ८ भाग पड़ती है परन्तु इसमें १ भाग और पथ्यमें दूध भात देना चाहिये । | पड़ती है। शेष प्रयोग समान है।
इस रसको सेवन करनेके पश्चात् १ मास (२६४३) तालकेश्वररसः ( ४ ) तक तक न पीना चाहिये।
( भै. र.; धन्वं, । कुष्ठा.) (२६४२) तालकेश्वररसः (३)
दद्रुघ्नवाणाङ्किरसं दत्वा तालं सुचूर्णितम् । (र. का. धे. । ज्वर.)
पुनःपुनश्च सम्मघे शुष्कं कृत्वा पुटे दहेत् ॥ मुशुद्धतालकसमं वीजं भल्लातकस्य च।। दृढस्थाल्यां धृतं क्षारं पलाशश्चाप्युपधिः। मर्दयेदर्कदुग्धेन वासरत्रितयं दृढम् ॥ | ततो ज्वाला प्रदातव्या दिनरात्रं मृतं भवेत् ॥ मृन्मूपासम्पुटे सम्पुटं कृत्वा वेष्टयेन्मृतिकापटैः । शुक्लवर्ण यदा च स्यादग्नौ दत्ते न धूम्रकम् । लघुपुटं ददीतास्य स्वाङ्गशीतं विचूर्णयेत् ॥ तदा ज्ञातं मृतं तालं सर्वकुष्ठविनाशनम् ॥
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