Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
द्वितीयो भागः ।
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
रसप्रकरणम् ]
[ ४७५]
यामेष्वतीतेषु चतुर्षु शुद्धं तत्ताम्रमाद्दुःखलु भस्मयोग्यम् । नेपाल ताम्रेण समोऽत्र दोषो नैवास्त्यतः शुद्धिरियम्मपूर्णा ॥
४ भाग लेकर सबको एक दिन सरसोंके तेलमें घोटकर दो शरावोंमें बन्द करके ऊपरसे ४-५ कपरमिट्टी करके सुखाकर १ पहर तक बालुकायन्त्र में पकाइये और उसके स्वाङ्गशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर १ पहर तक कनेरके रसमें घोटकर उपरोक्त विधि से १ पहर बालुकायन्त्र में पकाइये और उसके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर उसमें यवक्षार, सज्जीखार,
सुहागा, पांचोंलवण, चव्य, चीता, स्याहजीरा, सफेद जीरा और बायबिडंगका समान भ चूर्ण उसके बराबर मिलाइये ।
|
अर्थ - तूतिया से निकाले हुए तांको अग्निमें खूब निष्टप्त करके ( तपाकर ) मन्दार के पत्तों के स्वरसमें सातबार बुझाले, पश्चात् दो सेर इमली के पत्तोंको दशसेर पानी में डालकर कड़ाही में काढ़ा बनावे जब आधा पानी जल जाय तब उसमें आधसेर सेन्धानोन डालकर साथही साथ तूतिया से निकले हुए आधसेर ताम्बेको भी डाल दे। बाद चार पहर तक अग्नि दे । यदि पानी जल जाय तो गोमूत्र डालता जाय, गोमूत्र नहीं हो तो पानी से भी काम चल सकता है। बस इतनी ही शुद्धि इस ताम्रकी पर्याप्त है; क्योंकि तूतियाके तामेमें नैपाली तांबाके बराबर दोष नहीं होता है । | (२७०४) तृप्तिसागररसः (र. रा. सुं । अति.) रसभस्म तु भागैकं रसाद् द्विगुणगन्धकम् । गन्धकाद् द्विगुणं चाभ्रं निश्चन्द्रं मर्दयेत्ततः ॥ दिनैकं कटुतैलेन रुध्वा चुल्यां विपाचयेत् । यामैकं बालुकायन्त्रे समुद्धृत्य विमर्दयेत् ॥ हयमारकमूलोत्थरसैर्यामं निरुध्य च । पूर्ववत्पाचयेच्छुल्यां समादाय विमिश्रयेत् ॥ त्रिक्षारं पञ्चलवणं चन्यानिद्वयजीरकैः । विडङ्गेन च तत्तुल्यं युक्तोयं तृप्तिसागरः ॥ भक्षयेन्माषमात्रं च सन्निपातातिसारजित् । सज्वरां ग्रहणीं हन्ति धनुपानं विना रसः ॥
इसे एक माषेकी मात्रानुसार किसी अनुपान के बिना ही सेवन करनेसे सन्निपातज अतिसार, ज्वर और संग्रहणी नष्ट होती है । (२७०५) तृषाहारीरसः (यो. त. । त. ३४ ) रसगन्धककर्पूरैः शैलोशीरमरीचकैः । ससितैः क्रमदृद्धैश्च सूक्ष्मं चूर्णमहर्मुखे ।। त्रिगुञ्जामितं खादेत्पिवेत्पर्युषिताम्बु च । भृशं तृष्णां निहन्त्येवमश्विभ्यान्तु प्रकाशितम् ।।
1
पारद भस्म (अभाव में रस सिन्दूर) १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और निश्चन्द्र अभ्रक भस्म
शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, कपूर ३ भाग, भूरिछरीला ४ भाग, खस ५ भाग, तुलसी के बीज (तुख्मरीहां-तकमरियां. गु. ) ६ भाग और मिश्री ७ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिये, फिर उसमें अन्य समस्त ओषधियों का महीन चूर्ण मिलाकर खरल करके रखिये ।
इसमें से प्रतिदिन प्रातः काल ३ रत्ती चूर्ण बासी पानी के साथ खानेसे प्रबल तृष्णा भी अवश्य शान्त हो जाती है ।
For Private And Personal