Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४७९]
(२७१७) त्रिगुणाख्यो रसः (र.रा.सु. सन्नि.) । क्षीराज्यशर्करामिश्रं शाल्यन्नं पथ्यमाचरेत् । शुद्धं मूतं समं गन्धं मूतांशं मृतताम्रकम् ।। कम्पवातप्रशान्त्यर्थ निर्वाते निवसेत्सदा ।। त्रिभिस्तुल्यं गवां क्षीरैर्मर्दयेदातपे दृढम् ॥ त्रिगुणाख्यो रसो नाम्ना त्रिपक्षात्कम्पवातनुत्।। निर्गुण्ड्याथ द्रवैर्मध दिनैकन्तं च गोलकम् । १ भाग शुद्ध गन्धक (पक्षान्तरमें १६ भाग) त्रियामं बालुकायन्त्रे ह्यन्धमृषागतं पचेत् ॥ और २ भाग शुद्ध पारद लेकर दोनोंकी कजली
आदायचूर्णयेत्खल्वे ह्यष्टमांशं विषं क्षिपेत् । । करके, लोहेके पात्रमें जरासा घी लगाकर उसमें त्रिगुणाख्यो रसो नाम देयो गुञ्जाद्वयं द्वयम्॥ इस कजलीको डालकर मन्दाग्निपर पकाइये । जब पञ्चकोलं पिबेच्चानु पथ्यं छागपयेन च ॥ कजली पिघल जाय तो उसे ठण्डा करके पीस
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और ताम्रभस्म । लीजिये और फिर उसमें उसके बराबर हर्रक) १-१ भाग लेकर तीनोंकी कजली करके उसे महीन चूर्ण मिलाइये। सबके बराबर गोदुग्धमें धूपमें धोटें और फिर १ इसमेंसे पहिले दिन सात रत्ती औषध दिन संभालुके रसमें घोटकर गोला बनावें और । खाकर दूसरे दिनसे १-१ रत्ती बढ़ाकर खानी उसे सुखाकर अन्धमूषा में बन्द करके ३ पहर | चाहिये; जब २१ रत्ती मात्रापर पहुंच जायं तो तक बालुकायन्त्रमें पकाएं और फिर यन्त्रके स्वांग बढ़ाना बन्द करदें । ( यदि अधिक समय औषध शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर उसमें खानेकी आवश्यकता प्रतीत हो तो २१ रत्ती उसका आठवां भाग शुद्ध बछनाग (मीठा मात्रापर पहुंचनेके पश्चात् प्रतिदिन १-१ रत्ती तेलिया )का चूर्ण मिलाकर एकत्र खरल करें। घटाकर खाएं ।)
इसे २ रत्तीकी मात्रानुसार पञ्चकोल (पीपल इसके सेवनसे ६ सप्ताहमें कम्पवात रोग पोपलामूल, चव, चीता और सोंठ )के क्वाथके साथ नष्ट हो जाता है ।। सेवन कराने और बकरीके दूधके साथ पथ्य देनेसे ... कम्पवातवाले रोगीको घी, दूध और मिश्रीसन्निपात नष्ट होता है।
युक्त शाली चावलोंका भात खाना और सदैव (२७१८) त्रिगुणाख्यो रसः
निर्वात स्थानमें रहना चाहिये । (र. म.।अ. ७; रसें.चिं.।अ. ९; र. का.धे.।वात.) । (२७१९) त्रिदशेश्वररसः (र.का.धे.।अ.२२) गन्धकादद्विगुणं सूतं शुद्धं मृद्वनिना क्षणम्। मूतो बलिस्तीक्ष्णकं च ह्यमृतं व्यालपत्रकम् । पक्त्वावतार्य संचूर्ण्य चूर्णतुल्याभयायुतम् ॥ हरेणुः कृमिहा मेघो ग्रन्थिकं त्रुटिकेशरम् ॥ सप्तगुञ्जामितं खादेद्वर्द्धयेच्च दिने दिने। यूपणं च वरा चैव म्लेच्छभस्म तथैव च । गुजैकं च क्रमेणैव यावत्स्यादेकविंशतिः॥ एतानि समभागानि यैक्षवं द्विगुणं भवेत् ॥
१ गन्धकोऽष्टगुणः सूतादिति पाठान्तरम् ।
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