Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[४८०]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
तकारादि
-काम
शुल्वभस्म समं वीजं दन्तीजातं विनिक्षिपेत् ।। स्वर्णभस्म, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक, त्रिदशेश्वरनामाऽयं रसः स्यात्सर्वरोगजित् ॥ समान भाग लेकर कजली बनाकर उसे १ दिन श्वासं कासं तथा हिक्कामीसि च भगन्दरम्। घृतकुमारी ( घीकुमार-ग्वारपाठा )के रसमें घोटहृच्छूलं पार्श्वशूलश्च कर्णशूलं कपालिकाम् ॥ कर गोला बनाइये, और उसे सुखाकर सम्पुटमें हरेत्संग्रहणीरोगमष्टौ च जठराणि च । बन्द करके लघुपुटमें फूंक दीजिये । पुटके स्वाङ्गप्रमेहान्विशतिं चैवमश्मरीं च चतुर्विधाम् ॥ शीतल होनेपर उसमेंसे रसको निकालकर पीसकर अनुपानविशेषेण सर्वान्रोगानियच्छति ॥ रखिये।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, तीक्ष्ण लोहभस्म, इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार खिलानेसे सन्निशुद्ध बछनाग ( मोठा तेलिया), चीता, तेजपात, पात ज्वर नष्ट होता है । रेणुका, बायबिडङ्ग, नागरमोथा, पीपलामूल, छोटी ( अनुपान-शहद या अदरकका रस । ) इलायची, केसर, त्रिकुटा, हर्र, बहेड़ा, आमला, (२७२१) त्रिदोषशूलहरचूर्णम् (वै.र.शूला.) नैपालीताम्रकी भस्म और शुद्ध जमालगोटा १-१ त्रिफला लोहजं चूर्ण यष्टीमधुकमेव च । भाग तथा मिश्री सबसे दो गुनी लेकर प्रथम पारे मधुसपियुतं लीड्वा शूलं हन्ति त्रिदोषजम् ॥ गन्धककी कजली बनाइये और फिर उसमें अन्य हर, बहेड़ा, आमला, शुद्ध लोहचूर्ण (अथवा औषधोंका महीन चूर्ण मिलाकर खरल कीजिये ।
| लोहभस्म) और मुलैठी। इन सबका समान भाग इसे यथोचित मात्रा और अनुपानके साथ ! चूर्ण लेकर एकत्र खरल करें । सेवन करनेसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। इसे शहद और धीमें मिलाकर सेवन करनेसे विशेषतः यह-श्वास, खांसी, हिचकी, अर्श, भग- त्रिदोषज शूल नष्ट होता है । न्दर, हृदयका शूल, पसलीका दर्द, कर्णशूल, (मात्रा ३ माषे । घी ६ माषे । शहद २ तोले ।) मस्तकशूल, संग्रहणी, आठ प्रकारके उदररोग, २० (२७२२) त्रिनेत्ररसः (१) प्रकारके प्रमेह और ४ प्रकारकी अश्मरी (पथरी)का (र. चं.; रं. र. । वातरक्त० ) नाश करता है।
गरुत्मान् दरदस्तीक्ष्णं स्वर्ण वङ्गशुक्तिके। ( मात्रा-३ माशे।)
| शुल्वं च गगनं फेनं रुधिरं च त्रिनेत्रकम् ॥ (२७२०) त्रिदोषशमनरसः । पातालनृपतिश्चैव वह्निमूलं च रामठम् । ।
(र. चं. । त्रिदोष. चि.; र. प्र. सु. । अ. ८)। त्रिकटुत्रिफलाशिग्रुश्चाजमोदा यवानिका ॥ स्वर्ण सूतं तथा गन्धं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः।। पिप्पलीमूलं भार्गी च लशुनं जीरकद्वयम् । पश्चाद्गोलं विधायाथ शरावसम्पुटे पचेत् ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव गुटिकां कारयेद्भिषक् ॥ स्वागशीतं समुद्धृत्य चूर्ण कृत्वा प्रयत्नतः। मन्दानलामवातनं श्लेष्माणं च जलोदरम् । भक्षयेद्वल्लमात्रन्तु त्रिदोषजरुजं जयेत् ॥ ! अशीतिर्वातजान रोगान प्रमेहांश्चैव विंशतिम्॥
For Private And Personal