Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 527
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मिश्रप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः। [५१५] और फिर उसमें दूधसे ४ गुना पानी मिलाकर शहद डालकर खानेसे पुरानी वमन और तृष्णा पकावें । जब पानी जल जाय तो छानले। शान्त होती है। इसके कुल्ले करनेसे मुंह जल जानेसे उत्पन्न (२८०९) त्रिकवादिवत्तिः हुई दाह नष्ट होती है। । (भै. र.।आना.; वृं. मा.। आ.; व. से. । गुल्म.) (२८०६) तिलादिस्वेदः (यो. र. । गुल्म.) वत्तिस्त्रिकटुकसैन्धवसर्षपगृहधमकुष्ठमदनफलैः। तिलैरण्डातसीवीजसष्पैः परिलिप्य च । मधुनि गुडे वा पक्ता पाय्वीरितांगुष्ठपरिमाणा॥ श्लेष्मगुल्ममयस्पात्रैः सुखोष्णैः स्वेदयेद्भिपा। वर्तिरियं दृष्टफला शनैः शनैःप्रणिहिता घृताभ्यक्ता। तिल, अण्डीके बीज, अलसीके बीज और आनाहोदावर्त प्रशमनी जठरगुल्मनिवारिणी च ।। सरसों समान भाग लेकर सबको पानोके साथ त्रिकुटा, सेंधा, सरसों, घरका धुवां, कूठ और पीसकर लोहपात्रमें लेप कर दीजिये । इसे थोडा मैनफलका चूर्ण समान भाग लेकर सबको मधु या गरम करके इससे कफज गुल्मको सेकना चाहिये। गुड़में पकाकर अंगूठेके बराबर मोटी बत्ती बनावें। (२८०७) तिवृताधगदः (च. द.) , इसे घृतसे चिकना करके धीरे धीरे गुदामें त्रिवृद्विशाला मधुकं हरिद्रे चढ़ानेसे अफारा, उदावर्त और गुल्म नष्ट होता मञ्जिष्ठवर्गो लवण च सर्वम् । है । अनुभूत है। कटुत्रिकं चैव विचूर्णितानि (२८१०) त्रिफलादिसेकः श्रृङ्गे निदध्यान्मधुना युतानि ।। ( यो. र.; वृ. नि. र. । नेत्र.) एषोऽगद हन्त्युपयुज्यमानः त्रिफलालोध्रयष्टीभिः शर्करामद्रमुस्तकैः । पानाञ्जनाभ्यञ्जननस्थयोगः । पिष्टै सिताम्बुना सेको रक्ताभिष्यन्दनाशनः।। अवार्यवीर्यो विषवेगहन्ता त्रिफला, लोध, सुलैठी, खाण्ड और नागर मोथेको पानीके साथ पीसकर खांडके पानीमें महागदानाम महाप्रभावः ॥ घोलकर, बारीक कपड़े से छानकर आंखोंपर उसके निसोत, इन्द्रायण, मुलैी, हल्दी, दारुहल्दी, - झपके देनेसे रक्ताभिष्यन्द नष्ट होता है। मञ्जिष्टादिगण, त्रिकुटा और सेंधानमकका महीन (२८११) त्रिवृतादिवतिः (बृ. मा. । व्रण ) चूर्ण समान भाग लेकर सबको शहदमें मिलाकर गायके सींगमें भरकर रख दीजिये । व्रणान्विशोधयेद्वत्या सूक्ष्मास्यान्सन्धिमर्मगान् । कृतया त्रिवृतादन्तीलागलीमधुसैन्धवैः॥ इसे पीनेसे अथवा मलने या इसकी नस्य निसोत, दन्तीमूल, लाङ्गली ( कलिहारी )की लेने या अञ्जन लगानेसे विष नष्ट होता है। जड़ और सेंबेके समान भाग महीन चूर्णको शहदमें (२८४८) तृषानाशकान्नम् (बूं.मा ।तृष्णा.) । मिलाकर उसमें स्वच्छ और महीन कपड़ेकी बत्ती ओदनं रक्तशालीनां शीतं माक्षिकसंयुतम्। भिगोकर उसे धावके भीतर रखनेसे सन्धि और भोजयेत्तेन शाम्येते छर्दितृष्णे चिरोत्थिते । मर्म स्थानों के छोटे मुंहवाले घाव शुद्ध हो जाते हैं। लाल चावल ( साठी )के भातको ठंडा करके । इति तकारादिमिश्रप्रकरणम् । इत्यो३म् For Private And Personal

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