Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
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[४४५]
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गलत्कुष्ठं वातरक्तं ताम्रवर्णश्च मण्डलम् । विपद्धण्डिकामध्ये पलाशक्षारमध्यगम् । शीतपित्तमहादद्रुच्छुछुन्दरविनाशनम् ॥ यामान्द्वादश शीतेऽस्मिन् प्रयोज्यं रक्तिकाद्वयम्।। पथ्यं मसूरं चणकं मुद्गसूपं यथेच्छया ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि रोमविध्वंसनं तथा । (टि. अतिदृष्टफलोयं फिरिङ्गे मतः॥ द्विविधं वातरक्तश्च नाडीदुष्टव्रणानि च ॥
शुद्ध वर्की हरतालको पीसकर (७-७ बार) कुष्माण्ड ( पेठे )के रस, त्रिफलाके काथ, पंवाड़ और शरफोंकेके रसमें अच्छी तरह खरल तैल, घृतकुमारी ( ग्वारपाठा )के रस और काजीमें करके टिकिया बनाएं और उसे सुखाकर कपड़ १-१ रोज़ घोटी हुई हरताल १ भाग, शुद्ध मिट्टी की हुई मज़बूत हाण्डीमें ढाककी राखके | गन्धक १ भाग और शुद्ध पारद : भाग लेकर बीचमें रखकर उसके मुंहको शरावसे ढककर और | तीनोंकी कजली बना लीजिये और फिर उसे उसपर कपरमिट्टी करके सुखाकर चूल्हेपर चढ़ाकर ३-३ दिन बकरीके दूध, नीबूके रस और घृतउसके नीचे २४ घन्टे अग्नि जलावें और फिर कुमारीके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखा हाण्डीके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे हरताल- लीजिये तथा उसे कपरौटी की हुई हाण्डीमें ढाक भस्मको निकालकर पीसलें । हरतालको मृत उस (पलाश )की राखके बीचमें रखकर उसे मुख समय समझना चाहिये कि जब उसका रंग सफेद बन्द किये बिना ही चूल्हेपर चढ़ाकर १२ हो जाय और उसे अग्निपर डालनेसे धुंवा न निकले। पहरकी अग्नि दीजिये और हाण्डीके स्वांग शीतल इस प्रकारकी हरतालभस्म समस्त कुष्टोंका नाश होनेपर उसमेंसे हरताल भस्मको निकालकर पीसकरती है।
कर रखिये। इसके सेवनसे गलत्कुष्ट, वातरक्त, ताम्रवर्णका इसमेंसे २ रत्ती औषध नित्यप्रति (वृतादिके कुष्ठ, मण्डल कुष्ठ, शीतपित्त, दद्रु और छुछुन्दरका साथ ) सेवन करनेसे अठारह प्रकारके कुष्ठ, नाश होता है, आतशकमें इसका विशेष फल | इन्द्रलुप्त, दो प्रकारका वातरक्त और दुष्ट नाड़ीब्रण देखा गया है।
( नासूर ) नष्ट होता है। पथ्य--इच्छानुसार मसूर, मूंगकी दाल और तालकेश्वररसः (र.चिं. स्त.४;र.का.धे.कु.) चनेकी रोटी खानी चाहिये।
कुष्टहरितालेश्वररस सं. १०३१ देखिये । (२६४४) तालकेश्वररसः (५) (२६४५) तालकेश्वररसः (६) (भै. र.; धन्वं. । कुष्ट.)
( वृ. नि. र. । वातरक्त.; र. र. । कुष्ठ.) कूष्माण्डत्रिफलातैलकन्याकाञ्जिकभावितम् । तालकस्य तु यस्येह पत्राणि स्युः पृथक् पृथक् । तालकं तुल्यगन्धं स्थादर्द्धपारदमर्दितम् ॥ अभ्रकस्येव तद्ग्राह्य हरितालं विचक्षणैः ।। अजाक्षीरेण निम्बूककन्यातौयैर्दिनत्रयम् । पुनर्नवायाः स्वरसे तालकं तद्विमर्दयेत् । प्रत्येकं भावयेच्छुप्कं चक्रिकाकारताङ्गतम् ॥ दिनमेकं ततस्तस्मिन् घनत्वं गमिते सति ॥
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