Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[ ४४० ]
शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध हरताल ३ भाग, शुद्ध वनाग ( मीठा तेलिया) १ भाग, सुहागा ४ भाग, सौवीरान्ञ्जन २ भाग और त्रिकुटा ४ भाग लेकर प्रथम पारे और हरतालको एकत्र घोटें फिर उसमें अन्य औषधियां मिलाकर १-१ दिन थोहर ( सेंड ) के दूध और आकके दूधमें घोटकर सुखाकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर उसके मुखपर शुद्ध तांबेका पत्र ढककर सन्धिको गुड़ चूने से बन्द करके उसपर भी ३-४ कपरमिट्टी कर दीजिये, और सुखाकर बालुकायन्त्र में ८ पहर तक पकाइये फिर शीशीके स्वांग शीतल होने पर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पुनः थोहर और आकके दूधमें घोट कर उक्त विधिसे ८ पहर तक बालुकायन्त्र में पकाइये | इसी प्रकार ३ बार पाक कीजिये । ताम्रका पत्र हर बार बदलना नहीं चाहिये बल्कि एक ही पत्र तीनों बार शीशी मुंहपर ढकना चाहिये । अन्तमें शीशीमेंसे औषध निकालकर सुरक्षित रक्खें और ताम्रपत्रका जितना भाग भस्म होकर श्वेत हो गया हो उसे अलग निकालले उपरोक्त शीशीवाली औषध में उसका १६ वां भाग यह ताम्र भस्म मिलाकर घोटकर खखें ।
इसमेंसे नित्यप्रति ३ रत्ती औषध सेवन करने से समस्त रोग नष्ट होते हैं । यदि इसे १ वर्ष तक निरन्तर सेवन किया जाय तो कभी बुढ़ापा नहीं आता ।
भारत-भैषज्य रत्नाकरः ।
तकारादि
अस्य गुञ्जाद्वयं हन्ति वातिकं पैत्तिकं ज्वरम् ॥ शीतज्वरं विशेषेण तृतीयकचतुर्थकौ ॥
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(२६३५) तालकाङ्को रसः (र.रा. सुं, भै.र. ।ज्वरा.) तालकस्य च भागौ द्वौ भागन्तुत्थस्य शुक्तिका चूर्णकानां चतुर्भागं मर्दयेत्कन्यकाद्रवैः || यामैकेन ततः पश्चात् रुध्वा गजपुटे पचेत् ||
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शुद्ध व हरताल २ भाग, तुत्थ ( नीलाथोथा) और सीप १-१ भाग तथा ( बे बुझा ) चूना ४ भाग लेकर सबको १ पहर घृतकुमारीके रसमें घोटकर टिकिया बनाकर सुखा लीजिए और सम्पुट में बन्द करके उसे सुखाकर गजपुटमें फूंक दीजिए । सम्पुटके स्वांग शीतल होनेपर उसमें से औषध निकालकर पीसकर रखिये ।
इसमेंसे २ रत्ती दवा खाने से वातज, पित्तज और विशेषकर तृतीयक ( तिजारी ) और चौथिया इत्यादि शीतज्वर नष्ट होते हैं।
(से. वि. - औषध ज्वर आनेसे ३-४ घन्टे पहिले खांडमें मिलाकर खानी चाहिये। इससे किसी किसीको उल्टी होना सम्भव है । ज्वरका समय बीत जानेके २ - ३ घन्टे बाद दहीभातका पथ्य देना चाहिये ।)
(नोट - इस 'तालका रस' तथा आगे लिखे हुवे २ प्रकार के 'तालकादि ज्वराङ्कुश' रसों के उपादान लगभग समान ही हैं, परन्तु थोड़ा थोड़ा अन्तर होनेसे भी गुणों में विशेष अन्तर होना सम्भव है इस लिये तीनों पाठ पृथक् पृथक् दिये गये हैं ।) ( २६३६) तालकादिगुटिका
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( र. रा. सुं. । वा. व्या. ) तालकं गन्धसूतञ्च शुद्धं दरदटङ्कणम् । त्र्यूषणं समभागानि सर्वमेकत्र मर्दयेत् ॥ भावनैका प्रदातव्या आर्द्रकस्य रसेन च । मुद्गप्रमाणां वटिकामेकां प्रातः प्रभक्षयेत् ॥ प्रसूतिवातरोगघ्नं मन्दाग्निं ग्रहणीं तथा । इलेष्मनं विषमञ्चैव शीतज्वरं विनाशनम् ॥
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