Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[ ४१० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[तकारादि स्नुगर्कयोनूतनशुद्धदुग्धे
उत्थास्नुधातोश्च निरुत्थधातोचक्रीं च तामातपसंविशुष्काम् ।
निषेवणे चापि निदर्शनं तत् ।। पुटे गजाख्ये विनिधाय वह्नि
अर्थ-अब मैं ताम्रभस्मकी निरुत्थीकरणदद्याच्च शीतां तु समुद्धरेत्ताम् ॥२॥ क्रिया बतलाता हूं, जिससे ताम्रभस्म सम्पूर्ण गुणस्नुह्यास्तथास्य च दुग्धयोस्तां
युक्त हो । जब मित्र-पञ्चकके साथ ताम्रभस्मको विघय सम्यक प्रपचेत् पुरोवत् । घोटकर अग्निमें देने पर ताम्रको कान्ति कुछ मालूम एकद्वियोगोऽयमुदीरितो वः
। पड़ने लगे तब फिर मन्दार वा थूहरके दृधमें कुर्यादितीत्थं खलु पञ्चकृत्वः ।।३।। धोटकर तानभस्मकी टिकिया बनाले जब टिकिया एवं कृते सत्यपि यत्कथञ्चि
धूपमें खूब मूख जाय तब फिर सम्पुटमें रख कर द्भवेत्प्रकाशो लघुताम्रकान्तेः।
गजपुटमें देकर भस्म करले । जब स्वाङ्ग शीतल तदा द्विवारं पुनरित्थमेव
हो जाय तब निकालले, इसी प्रकार मित्रपञ्चकसे कृर्यानिरुत्थीकरणं ह्यवश्यम् ।। ४ ।।
जिला जिला कर पांच बार मारण करे । ऐसा
करने पर भी मित्र--पञ्चकमें घोट कर सम्पुट में अर्कस्नुहीदुग्धयुगस्य यत्र लाभो न सम्यग्यदि तत्र वैद्यः ।
रखकर गजपुट देनेसे कुछ कुछ यदि ताम्रकी
झलक मालम हो तो फिरभी दो बार उक्त प्रकारसे मित्रोत्थितं तच सुगन्धकेन कन्याद्रवैःपूर्ववदेव कुर्यात् ।।
जरूर भस्म करले । यदि मन्दार वा थूहरका दूध
नहीं मिले तो शुद्र गन्धक व घृतकुमारीके रसके यथा विदग्धं नहि पच्यतेन--
साथ तात्रभस्मको धोटकर पूर्ववत् निरुत्थीकरण मौदर्यवह्रौ न च तत्समस्तम् ।
करले ।। ५ ॥ निरुत्थीकरण करनेका तात्पर्य यह स्वीयं गुणं भुक्तवतः प्रदद्यादु
है कि जैसे अधपका अन्न जठराग्निमें नहीं पचकर स्थास्नवो धातव एवमेव ॥
खानेवालेको पूरा फायदा नहीं करता है इसी प्रकार यूनानवैद्यश्च तथाऽऽयवैयः
जिनका निरुत्थी-करण संस्कार नहीं हुआहै, वे परस्परं सङ्गिरतेस्म कामम् । धातु भी अपना पूर्ण गुण नहीं करते हैं ॥६॥ सुवर्णपत्राणि निषेवितानि
इस विषयको पुष्ट करनेवाला दृष्टान्त यह है-किसी स्वर्णस्य पत्राणि तु मासमात्रम् ।। हकीम का मत था कि स्वर्णगर्भपोटली इत्यादि तदा वैयेन तदीयविष्ठा
रसों में अथवा काल सुवर्णसेवन में सोने के तबक संग्राहिता चाथ सुदाहिता च । देने चाहिएं; और वैयका मत था कि केवल पदाहितायामथतत्र तेन
सुवर्ण जठरा.में नहीं पचेगा अतः उसको भस्म स्वर्ण परिक्षालनतोऽवकृष्टम् ।' देनी चाहिए । दोनोंका विवाद बने पर वैद्यने
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