Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
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हींग, त्रिकुटा, अपामार्ग ( चिरचिटा ) के पत्ते, आक और थोहर ( सेहुंड - सेंड ) के पत्ते समान भाग तथा इन सबके बराबर सैंधा नमक, लोहभस्म और ताम्र भस्म लेकर सबका चूर्ण करके एकत्र घोटकर गोलियां बना लीजिए ।
इनके सेवन से तिल्ली, यकृत्, गुल्म, आमवात, अर्श (बवासीर), भयङ्कर उदर रोग, मूर्च्छा, पाण्डु, हलीमक, ग्रहणी, अतिसार, यक्ष्मा और शोथ रोग नष्ट होता है। (मात्रा - ४ - ५ रत्ती । ) (२६०९) ताम्रेश्वरो रसः (१)
( वृ. नि. र. र. रा. सुं. । कास. ) रसपादं मृतं तारं शिलाताप्यं चतुर्गुणम् । वासाचेक्षुरसाभ्याञ्च मर्दयेत्महरद्वयम् ॥ द्वियामं बालुकायन्त्रे स्वेद्यमादाय चूर्णयेत् । गुञ्जाद्वयं निहन्त्याशु कासं क्षतभवं ध्रुवम् ॥ रसस्ताम्रेश्वरो नाम नुपानं च कथ्यते । दाडिमं त्रिफला व्योषं त्रयाणाञ्च समं गुडम् । चूर्णितं भक्षयेत्कर्षं क्षतकासापनुत्तये ॥
रससिन्दूर १ भाग, चांदी भस्म चौथाई भाग, मैनसिल और सोनामक्खी भस्म ४-४ भाग लेकर सबको २ - २ पहर बासा और ईखके रसमें घोटकर सुखाकर आतशी शीशी या काली बोतल में भरकर २ पहर तक बालुका यन्त्रमें पकाएं और फिर शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसके भीतरसे औषधको निकालकर पीसकर रक्खें ।
अनारके फलकी छाल, त्रिफला और त्रिकुटा समान भाग तथा इन सबके बराबर गुड़ लेकर चूर्ण बनावें, उपरोक्त औषधमें से २ रत्ती औषध खाकर ऊपरसे १। तोला यह चूर्ण (गर्म पानी से )
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[ तकारादि
खाएं । इसके सेवन से क्षतजकास अवश्य नष्ट हो जाती है
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(२६१०) ताम्रेश्वरो रसः (२)
( र. रा. सुं. । श्वासा. ) पलानि पञ्च शुद्धानि ताम्रपत्राणि बुद्धिमान् । गृहीत्वा योजयेत् तत्र तद शुद्धमृतकम् ॥ मर्दयेन्निम्बुकद्रावैस्त्रिदिनान्युभयं भिषक् । ताम्रपत्रैः समं शुद्धं गन्धकं तत्र निक्षिपेत् ॥ मर्दयित्वा घटीयुग्मं काचकूप्यां च निःक्षिपेत् । यामानष्टौ पचेदग्नौ बालुकायन्त्रसंस्थितम् || एष ताम्रेश्वरो हन्यात् श्वासादीनखिलान्गदान । धातुपुष्टिकरञ्चैव सूतिकारोगनाशनः ॥
शुद्ध ताम्रपत्र ५ पल (२५ तोले) और शुद्ध पारद २ || पल लेकर दोनोंको तीन दिन तक नीबू के रस में घोटिये और फिर उसमें ५ पल शुद्ध गन्धक मिलाकर २ घड़ी तक घोटकर कपरमिट्टी की हुई आतशी शीशी में भरकर आठपहर तक बालुकायन्त्रमें पकाइये । शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से औषधको निकालकर पीसकर रखिये। इसके सेवन से श्वास और सूतिका रोगादि नष्ट होते तथा धातुपुष्ट होती हैं ।
(२६११) तारकेश्वरी गुटिका (२.२.२. उप. ३) काकमाच्यमृताद्रावैः पारदं तालकं समम् । मर्दयेद्दिनमेकन्तु कृत्वा गोलं विशोषयेत् ॥ निक्षिपेद्वज्रभूषायामाच्छाद्य लौहपर्पटैः । रुध्वा सन्धि धमेद्गाढं खोटबद्धो भवेद्रसः || लोहपपेटकं दत्वा तद्वद्धाम्यं त्रिधा पुनः । वर्षेकं धारयेद्वक्त्रे गुटिकां तारकेश्वरी ॥ बाकुचीवीजकर्षैकं गवां क्षीरैः पिबेदनु । सर्वकुष्ठानि नश्यन्ति दिव्यकायो भवेन्नरः ॥
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