Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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द्वितीयो भागः ।
कल्पप्रकरणम् ]
खाने से कामदेव के समान रूप, चन्द्रमाके समान कान्ति, गरुड़ समान दृष्टि, सिंहके समान शब्द हाथी के समान बल, पवनके समान तीव्र गति, और पर्वत समान शारीरिक भार प्राप्त होता है ।
आयुकी स्थिरता के लिए १ वर्ष तक प्रतिदिन प्रातःकाल १ हर्र, भोजनके पहिले घी और शहद में मिलाकर दो बहेड़े तथा भोजनके पश्चात् ४ आमले खाने चाहिएं ।
त्रिफलेका काथ पीनेसे मल निकलकर शरीर शुद्ध हो जाता है तथा नेत्रोंकी सूजन, जलन, सुर्खी, कण्डू (खुजली) और स्रावका नाश होता है।
कोठेकी शुद्धिके लिए २|| तोले या ५ तोले त्रिफलाका काथ पिलाना चाहिए ।
त्रिफलाको ३ भाग घीमें मिलाकर सेवन करनेसे विसर्प, प्रमेह, और आधासीसी आदि समस्त रोगों का नाश होता है ।
त्रिफला चूर्णको शहद के साथ सेवन करनेसे प्रमेह, गलगण्ड और अपची (गण्डमाला भेद) इत्यादि रोग नष्ट होते हैं ।
१०० पल (६।सेर) त्रिफला चूर्णको भांगरे
के रस में सात दिन तक घोटकर रख लीजिए ।
इसमें से प्रतिदिन २ ॥ तोले चूर्ण शहद और घृतके साथ मिलाकर खाना चाहिए और उसके पचने पर दूधभातका आहार करना चाहिए।
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इस प्रयोगसे दृष्टि स्वच्छ हो जाती है, बाल भर के समान काले हो जाते हैं; शरीर स्निग्ध और सुन्दर हो जाता है, सैकड़ों स्त्रियों से रमण करने की शक्ति प्राप्त होती है, तथा मनुष्य महाबलशाली, मेधावान् स्मृतिमान् और धीर होकर छः सौ वर्ष पर्यन्त रोग रहित जीवन धारण करता है 1
त्रिफलकी गुठली दूरकरके, कूटकर रातको पानी में भिगो दीजिए। इसे प्रातः काल सेवन करने से विषमज्वर नष्ट होता है । (२५५४) त्रिफलाकल्पः
एक मास तक त्रिफला सेवन करने से दृष्टि वक्ष्यामि योगयुक्तिश्च रोगे रोगे पृथक्पृथक् ॥ गरुड़ के समान हो जाती है । वातेोपेतापित्ते समधुशर्करा । श्लेष्मे त्रिकटुकोपेता मेहे समधुवारिणा ।। कुष्ठे च घृतसंयुक्ता सैन्धवेनाग्निमान्यहा । चक्षुर्भावनके काथो नेत्ररोगनिवारणः । घृतेन हरते कण्डूं मातुलुङ्गरसैर्वमिम् । क्षीरेण राजयक्ष्माणं पाण्डुरोगं गुडेन च ॥
( हा. सं. । स्था. ५ अ. २ ) हरीतक्याश्चामलक्या विभीतस्य च यत्फलम् । त्रिफलेत्युच्यते वैद्यैर्वक्ष्यामि भागनिर्णयम् ॥ एकं भागं हरीतक्या द्वौ भागौ च विभीतकम् । आमलक्यास्त्रिभागञ्च सहैकत्र प्रयोजयेत् ॥ त्रिफलाकफपित्तघ्नी महाकुष्ठविनाशिनी । आयुष्या दीपनी चैव चक्षुष्या व्रणशोधिनी ॥ वर्णप्रदायिनी या विषमज्वरविनाशिनी । दृष्टिप्रदा कण्डहरा वमिगुल्मार्शनाशिनी ॥ सर्वरोगप्रशमनी मेधास्मृतिकरी वरा ।
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