Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[४०७]
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होते तथा बल वर्ण वीर्य धातु और अग्निकी वृद्धि | पत्थरके खरलमें रखकर तेज़ धूपमें रख दीजिये । होती है।
१ पहर पश्चात् द्रव तैयार हो जायगा, उसे शीशीमें (२५६७) ताम्रद्रुतिरस:
भरकर रख लीजिये। (र. र. स. । उ. ख. अ. १८)
इसमें से नित्य प्रति १ रत्तीसे १ माषे तक पलं नेपालशुल्वस्य पत्राणि मुतनूनि च।।
यथोचित मात्रानुसार घी और शहदके साथ सेवन कृत्वा कण्टकवेध्यानि कारयेत्तदनन्तरम् ॥ करनेसे भयङ्कर अग्लपित्त, खांसी, क्षय, शोष, अर्श, ककं द्विगुणं ग्राह्यं क्रमात्सूतकगन्धयोः। | संग्रहणी, कामला, पाण्डु, ग्यारह प्रकारके कुष्ठ,
मदितव्यं शिलाखल्वे रसैर्दन्तशठस्य वै॥ रक्तपित्त, खालित्य, शूल, उदररोग, वातव्याधि, . तत्कल्कं पङ्कवत्कृत्वा तेन पर्णानिसर्वशः। प्रतिस्याय, विद्रधि और विषमज्वरका नाश होता है।
लेपयित्वा शिलाखल्वे स्थापयेदातपे खरे ॥ इसे निरन्तर कुछ समय तक सेवन करनेसे यामैकेन समुदत्य द्रवी भवति नान्यथा । । शरीर वलिपलित और रोग रहित, ताम्रके सदृश वान्ति विरेचनं कृत्वा शुद्धकायो यथाविधिः॥ हो जाता है । पूजयित्वा सुरान्वैद्यान्विमान्हेमांवरादिभिः। औषध खानेके पश्चात् तक्र अथवा काजी तां द्रति मधुसर्पिा रक्तिकामाषकादिभिः॥ पोनी चाहिये और औषध पच जानेके पश्चात् लीढ़वा तत्र पिबेत्तकं धान्याम्लकमथापि वा। सायङ्कालको पुराने शाली चावलोंका भात खाना जीणे सायं समश्नीयाच्छाल्यन्नं तु पुरातनम् ॥ चाहिये । सेव्यमानं निहन्त्येतदम्लपित्तं सुदारुणम् ।
औषध प्रारम्भ करनेसे पूर्व वमन विरेचन द्वारा कासं क्षयं तथा शोषमीसि ग्रहणीं तथा ॥
यथाविधि शरीर शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिये; कामलां पाण्डुरोगश्च कुष्ठान्ये कादशैव च ।
और गुरु, वैद्य तथा ब्राह्मणादि पूज्य महानुभावोंको रक्तपित्तं सखालित्यं शूलञ्चैवोदराणि च ॥ वातरोगं प्रतिश्यायं विद्रधिं विषमज्वरम् ।।
| स्वर्ण और वस्त्रादि द्वारा सम्मानित करनेके पश्चात्
__ औषध सेवन करनी चाहिये। सतताभ्यासयोगेन वलीपलितनाशनम् ॥
(नोट-यदि १ पहरमें ताम्रपत्र न गल ताम्रवत्कुरुते देहं सर्वव्याधिविवर्जितम् ।। जीवेद्वर्षशतं साग्रं द्वितीय इव भास्करः॥
| जायं तो अधिक समय तक धूपमें रखना चाहिये, १ कर्ष ( सवा तोला ) पारद और २ कर्ष
और यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो उसमें नीबूका गन्धककी कजली करके उसे जम्बीरी नीबके रसमें रस भी डाल देना चाहिये ।) घोट कर कीचडके समान बना लीजिये और फिर (२५६८) ताम्र-पर्पटी (र. चिं.। स्तव. ८) ५ तोले अत्यन्त बारीक कण्टकवेधी ताम्रपत्रों पर प्रत्येकं दशगयाणाः शुद्धगन्धकम्तयोः । इस कजलीको अच्छी तरहसे लपेट दीजिये और मृतताम्रस्य पश्चैव खल्बके पञ्चविंशतिः ॥
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