Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[३१२] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः ।
जकारादि दन्तास्तु वीजैर्बकुलद्रुमस्य
पिष्ट्वा तैलं घृतं क्षीरे साधयेच्चतुर्गुणे ॥ स्थानच्युताऽप्यचला भवन्ति ॥ वृंहणं वातपित्तनं बलशुक्राग्निवर्द्धनम् ।
चमेलीके पत्तोंको चबानेसे मुखरोग नष्ट होते मूत्ररेतोरजोदोषान् हरेत्तदनुवासनम् ।। हैं और मौलसिरीके बीजोंको चबानेसे स्थानच्युत
जीवन्ती, मयनफल, मेदा, मुण्डी, मुलैठी, (जड़ छोड़े हुवे) दांत भी जम जाते हैं ।
खरैटी, सौंफ, ऋषभक, पीपल, कांकनासा, शतावर, (२१९१) जात्यादिवत्तिः
कौं चके बीज, क्षीरकाकोली, काकड़ासिंगी, कचूर (. मा.;भा. प्र.; वं. से. । नाटी व.)
। और बच । सबको पीसकर क क बना लीजिए । जात्यर्कशम्पाककरञ्जदन्ती
इस कल्क के साथ इससे ४ गुना धी या तैल सिन्धुत्थसौवर्चलयावशूकैः ।
। और उससे ४ गुना दूध एकत्र मिलाकर पकाइये । वर्तिः कृता हन्त्यचिरेण नाडी स्नुकक्षीरपिष्टा सह चित्रकेण ।।
इस स्नेहकी अनुवासन बस्ति लेनेसे मूत्र चमेलीके पत्ते, अर्क (आक) के पत्ते या जड़
विकार, शुक्रदोष और वातज तथा पित्तज रोग
नष्ट होते और बल वीर्य तथा अग्निकी वृद्धि अमलतासके पत्ते, करञ्ज, दन्ती, सेंधा, सौवर्चल (काला नमक), जवाखार, और चीतेको सेहुंडके
होती है। दूधमें पीसकर उसमें कपड़ा भिगोकर उसकी बत्ती
| (२१९४) ज्योतिष्मतीरसायनम् बनाकर नासूरके भीतर लगानेसे नासूर अत्यन्त (र. र. स. । उ. ख. अ. २६) शीघ्र भर जाता है। (२१९२) जालिनीफलवतिः
ज्योतिष्मत्त्यास्तैलमाज्यं सगन्धम् (रा. मा. । अर्श. १८)
गुञ्जाद्धया सेवयेन्मासमात्रम् । यत्नेन वतिरथवा गमिता गुदेन ।
यावच्च स्थावस्तु स प्राप्य मूर्तिया जालिनीफलरजोगुडसम्पयुक्ता।
मेंधायुक्तो दिव्यदृष्टिर्नियक्ष्मा ॥ कड़वी तूंबी ( अथवा विन्दाल) के फलके
___ ज्योतिष्मती (मालकंगनी ) का तैल, धी चूर्णको गुड़में मिलाकर उसकी बत्ती बनाकर गुदामें और शुद्ध आमलासार गन्धक समान भाग लेकर रखनेसे अर्श नष्ट होती है।
एकत्र मिलाकर एक रत्तीकी मात्रासे सेवन करना (२१९३) जीवन्त्याद्यनुवासनम्
आरम्भ करें और प्रतिदिन एक एक रत्ती मात्रा (च. सं. । चि. । अ. ४) बढ़ाते जाएं। जीवन्ती मदनं मेदां श्रावणी मधुकं बलाम् । इस प्रकार १ मास तक सेवन करें। इस शतावर्षभको कृष्णां काकनासां शतावरीम् ॥ प्रयोगसे मेधावृद्धि होती है, दृष्टि दिव्य हो जाती स्वगुप्तां क्षीरकाकोली कर्कटाख्यां शटी वचाम्। है तथा यक्ष्मा रोग नष्ट होता है ।
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