Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[ ३८६ ]
(२५०६) तिलाष्टकम्
(वृ. मा.; यो. र.; च. द.; भै. र; र. र.; भा प्र. । खं. २ । ब्रण.; शा. ध । खं. ३ अ. व्रणशोथा . ) + तिलकल्कः सलवणो द्वे हरिद्रे त्रिवृद्धतम् । मधुकं निम्बपत्राणि लेपःस्याद् व्रणशोधनः ॥
पिसे हुवे तिल, सेंधानमक, हल्दी, दारु हल्दी, निसोत, मुलैठी और नीमके पत्तों का समान भाग चूर्ण लेकर धीमें मिलाकर लेप करनेसे धाव शुद्ध हो जाते हैं।
भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
(२५०७) तुगाक्षीर्यादिलेपः
( शा. सं. । खं. ३ अ. ११ ) अदिग्वे तुगाक्षीरी लक्षचन्दनगैरिकैः । सामृतैः सर्पिषा स्निग्धैरालेपं कारयेद्भिषक् ।।
असे जले हुवे स्थानपर बंसलोचन, पीपल की छाल, लालचन्दन और गेरुके महीन चूर्णको दूध में पीसकर घी में मिलाकर लेप करना चाहिये । (२५०८) तुत्थादिमलहरम् (नपुं । त. ८) तुत्थं सिक्थं च काम्पिल्लं सिन्दूरं मृतमश्मकम् । पूगीफलं च खर्जूरं भर्जितं शाणमात्रकम् ॥ कर्पूरं च वेदगुञ्जा सर्व सम्मेलयेद् बुधः । एकोत्तरशतं धौते नवनीते विवेलयेत् ॥ उपदंश फिरङ्गन्नं लेपनं परमोत्तमम् । अनुभूतश्च योगोऽयं योगेषु प्रवरो मतः ॥
नीला थोथा (तुत्थ), मोम, कमीला, सिन्दूर, मुरदा सिंग, सुपारी और छुहारेका कोयला ४-४ माशे तथा रस कपूर ४ रत्ती लेकर मोमके अति
तकारादि
रिक्त समस्त ओषधियोंका महीन चूर्ण कर लीजिए; फिर मोमको पिघलाकर १०१ वार धुले हुवे नवनीत (नौनी) धीमें मिलाकर उसमें अन्य समस्त ओषधियों का चूर्ण मिलाकर घोट लीजिए ।
इस मल्हम से उपदंश और फिरङ्ग रोगके घाव नष्ट होते हैं । यह प्रयोग अत्युत्तम और अनुभूत है । (नोट-धी सब ओषधियोंके बराबर लेना चाहिये ।) (२५०९) तुत्थादिलेप:
( वा. भ. । उत्त. अ. ३४.; र. र. । उप. ) तुत्थगैरिकलोधैलामनोद्दालरसाञ्जनैः । हरेणुपुष्पकासीसस राष्ट्रीलवणोत्तमैः ॥ लेपः क्षौद्रयुतैः सूक्ष्मैरुपदंशत्रणापहः ॥ *
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तु (नीला थोथा ), गेरु, लोध, इलायची, मनसिल, हरताल, रसौत, रेणुका, पुष्प कासीस ( फूलकसीस ), सौराष्ट्री और सेंधानमक समान भाग लेकर अत्यन्त महीन पीसकर शहद में मिलाकर लेप करनेसे उपदंश (आतशक ) के घाव नष्ट हो जाते हैं ।
(२५१०) तुम्बर्वाद्युद्धर्त्तनम् (ग.नि. | कु.) तुम्बरु सर्पपाः कुष्टमश्वगन्धाऽथ चित्रकः । पटोलपि मन्दौ च देवदारुः कुठेरकः ॥ सुरसा सैन्धवं रास्ना चोरकः सारिवा वचा । हरितालं शिला चैव हरिद्रे द्वे निदिग्धिका ॥ एतानि क्रपिटानि कुष्ठेषूद्वर्तनं परम् । पामाकिटिमसिध्मानि स्थूलारुष्यं विचर्चिका ।।
+ भा. प्र यो. र. शा. व में इलोक भिन्न है, प्रयोग यही है ॥
* रस रत्नाकरमें पाठ भिन्न हैं और गेरू तथा लोधके स्थान में सुहागा और सिन्दूर लिखा है शेष प्रयोग
समान है ॥
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