Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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द्वितीयो भागः ।
प्रकरणम् ]
जिनका मुख छोटा हो वह घाव एवं नासूर शुद्ध होकर भर जाते हैं । * (२०३३) जात्यादिघृतम्
( हा. सं. । स्था. ३ अ. ४८ ) जातीकरञ्ज पिचुमन्दपटोलपत्रै
मधुश्च रजनी कटुरोहिणी च । मञ्जिष्ठकोत्पलमुशीर करञ्जवीजम् स्यात्सारिवा मागधिका समांशा ।।
पकं घृतं च हितमेव व्रणे प्रशस्तं नाडीगते च सरुजे च सशोणिते च । "तावि सर्पमपि हन्ति गभीरके च arrai सकठिनन्त्वपि रोहयन्ति ॥ चमेली के पत्ते, करञ्जवे के पत्ते, नीमके पत्ते, पटोलपत्र, मुलैठी, हल्दी, कुटकी, मजीठ, नीलोफर, खस, करञ्जकी गिरी, सारिवा, निसोत, और पीपल का कल्क १ - १ तोला, गायका धी ५६ तोले और पानी २२४ तोले । सबको एकत्र मिलाकर मन्दान पर पकाये। जब सब पानी जल जाय तो उतारकर छान लीजिए ।
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यह घृत नाडीव्रण ( नासूर ), पीड़ायुक्त व्रण, और जिससे रक्त निकलता हो उस व्रणको तथा मकड़ीका फलना, अग्निसे जलना और कठिन तथा गहरे व्रण ( घाव ) को नष्ट करता है ।
नोट - इस प्रयोग में और प्रयोग सं. २०३२ में केवल इतना ही अन्तर है कि उसमें करञ्ज पत्र, नीलोफर और निसोत नहीं है तथा दारु हल्दी, नीलाथोथा और मोम अधिक है।
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२०३४) जात्यादिघृतम् ( रा. मा. । स्त्री. ) संयोजितं पल्लवपञ्चकेनजातीप्रसूनैर्मधुकान्वितैश्च । सूर्याशुतप्तं घृतमङ्गनानामभ्यङ्गतो हन्ति वराङ्गगन्धम्
आम, जामन, कैथ, बिजौरा और बेलके पत्ते, मुलैठी तथा चमेली के फूल समान भाग लेकर खूब महीन पीसकर चारगुने गोघृतमें मिलाकर धूप में रख दीजिए।
( १० दिन पश्चात् शीशी या मर्तबान में भरकर रख लीजिए । )
इस की मालिश से योनि की दुर्गन्ध नष्ट होती है। (२०३५) जीमूतकादिघृतम् (ग. नि. । ग्रन्ध्य.) जीमूतकैः कोषवतफलैश्च दन्तीवन्तीति चैव । सर्पि कृतं हन्त्यपचीं प्रवृद्धां
द्विधा प्रवृत्तं तदुदारवीर्यम् ॥ जीमूत, (देवदाली फल), कड़वी तंबी, दन्ती, द्रवन्ती, और निसोतके कल्क तथा काथ से पकाया हुवा घृत लगाने और खाने से प्रवृद्ध अपची ( गण्डमाला भेद ) का नाश होता है।
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( घृत पकाने के लिए कल्क से चार गुना घी और घीसे चार गुना काथ लेना चाहिये । (२०३६) जीरकघृतम् (वं. से. । अजी. )
जीरके चित्रकं चयं यवानी नागरं तथा । पलिकानि च तत्सर्वं पञ्चवं लवणानि च ।। आरनालाढकं दत्वा घृतप्रस्थं विपाचयेत् । एतदग्निविवृद्धयर्थमर्शसां नाशनं परम् ॥
* रसरत्नसमुच्चयमें इस प्रयोग में मोमके स्थान में तेजपात लिखा है । तथा कुटकी, हल्दी और दारु
हल्दी नहीं है ।
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