Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
Aniruvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv
[ २१४] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[चकारादि भगन्दरोपदंशी च दद्र्कण्डूव्रणापचीः | ऊरुस्तम्भ, आमवात, और कटीग्रह (कनरका रह दाहं तृष्णामूरुस्तम्भमामवातं कटीग्रहम् ॥ जाना ) रोग नष्ट होते हैं । युक्त्या मण्डेन मयेन मुद्रषेण वारिणा।
इसे मण्ड, मद्य, मूंगके यूष, पानी, गिलोय, गुडूचीत्रिफलावासाकाथनीरेण वा कचित् ॥ त्रिफला और बासे के क्वाथ या स्वरसादिमेंसे व्याधि
- पारा, गन्धक, लोह भस्म और अभ्रक भस्म के अनुकूल अनुपानके साथ सेवन कराना चाहिये । १-१ पल (५-५ तोले), तथा शंखभस्म, सुहागे
(व्यवहारिक मात्रा-५-६ रत्ती) की खील और कौड़ी भस्म आधा आधा पल,
और गोखरुके बीजों (फलों) का चूर्ण १ पल लेकर (१८९९) चन्द्राननो रसः प्रथम पारे गन्धककी कजली बनवा लीजिए,
| (र. सा. सं.; र. रा. सुं.; र. का. धे.; र. चं. । तत्पश्चात् अन्य औषधे मिलाकर घुटवाइये और
कुष्ठ; रसे. चिं. । अ. ९) फिर एक पात्रमें पानी भरकर उसके मुख पर कपड़ा बांधकर उसे अग्नि पर चढ़ा दीजिए, और उपरोक्त
सूतव्योमानयस्तुल्यास्त्रिभागोगन्धकस्य च। रसको कपड़ेकी पोटली में बांधकर उक्त पात्र
काठोदुम्बरिकाक्षीरैः सर्वमेकत्र मईयेत् ॥ के मुखपर बंधे हुवे कपड़े पर रखकर थोड़ी देर
| माषमात्रां गुटीं कृत्वा कुष्ठरोगे प्रयोज त् ।
देहशुद्धिं पुरा कृत्वा सर्वकुष्ठानि नाशत् ॥ स्वेदित कीजिए । फिर इसमें पटोल पत्र, पित्तपापड़ा, भारंगी, बिदारीकन्द, सौंफ, गिलोय, ब्रह्म
एष चन्द्राननो नाम साक्षाच्छ्रीभैरव दितः ॥ दण्डी, बासा, मकोय, इन्द्रायन, पुनर्नवा (सांटी), पारा, अभ्रक भस्म, चीतेकी छालका चूर्ण, भांगरा, शालिञ्चशाक, और गूमाका आधा आधा १-१ भाग तथा गन्धक ३ भाग लेकर प्रथम पल रस डालकर घुटवाकर सबकी १४ गोलियां पार और गन्धककी कज्जली बनाएं और फिर सब बनवा लीजिये।
को काठोदुम्बर (कठूमर) के दूधमें अच्छी तरह
| घोटकर १-१ माशेकी गोलियां बना लीजिए। यह श्री गहनानन्द नाथ कथित " चन्द्र सूर्यात्मक" रस है।
श्री भैरव कथित इस “चन्द्रानन" रसको इसे बकरीके दूधके साथ सेवन करनेसे हली
शरीर शुद्धिके पश्चात् समस्त कुष्ठ रोगोंमें सेवन
कराना चाहिए। मक, पाण्डु रोग, कामला, जीर्णज्वर, रक्तपित्त, अरुचि, शूल, तिल्ली, अफारा, अष्टीला, गुल्म, |
(अनुपान-बाबचोका काथ) विद्रवी, शोथ, अग्निमांद्य, खांसी, श्वास. हिचकी, नोट-र. का. धे. की चन्द्रप्रभावटी नं.१८९१ वमन, भ्रम, भगन्दर, उपदंश, दाद, खुजली, ब्रण और यहरस लगभग समान ही हैं। उसमें अभ्रक (धाव), अपची (गण्डमाला भेद), दाह, तृष्णा, के स्थानमें मरिच पड़ती हैं।
For Private And Personal