Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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द्वितीयो भागः ।
रसप्रकरणम् ]
बाकुचीवीजपञ्चाङ्गं त्रिफलातुल्यचूर्णकम् ॥ मध्वाज्याभ्यां लिहेत्कर्षमनु स्पात्सर्वकुष्ठनुत् ।
शुद्ध पारा २ पल (१० तोले), अङ्कोल के बीज १ पल, कान्तलोह भस्म ४ पल, शुद्ध गंधक १० पल अभ्रक भस्म २ पल, त्रिफला २ पल, और काला जीरा २ पल लेकर सबको १० दिन तक भांगरे के रस में अच्छी तरह घुटवाइये ।
तत्पश्चात् सब औषधों के बराबर तिलका तेल और उतना ही भांगरे का रस उसमें मिलाकर मन्दाग्नि पर पकाइये | जब कठिन हो जाय तो उसका गोला बना कर किसी चिकने पात्रमें बन्द करके अनाजके ढेर में दबा दीजिए। फिर सात दिन पश्चात् उसमें उसके बराबर अंकोलके बीज तथा तिलकी खल मिला लीजिए ।
इसे प्रति दिन १ निष्क (५ माशे) मात्रा - नुसार सेवन करने से सर्व प्रकार के कुष्ठ नष्टं होते हैं।
अनुपान — बावची के बीज या पञ्चाङ्ग और त्रिफला बराबर बराबर लेकर चूर्ण करके औषध खाने के बाद १ कर्ष ( १ | तोला) की मात्रानुसार शहद में मिलाकर चाटना चाहिए । (१८७५) चण्डरुद्ररसः (र. का. घे. । कु.) सर्पाक्षी वेतसो नीली पलाशं काकमाचिका । मुनिपद्रवैस्तेषां द्वित्राणां वा द्रवैर्दिनम् ॥ मर्दयेत्सूतकं गाढं मृत्पात्रे तैर्द्रवैः पचेत् । करीषाग्नौ दिवारात्रं स्वांगशीतं समुद्धरेत् ॥ एतत्तुल्यं शुद्धगन्धं म बाकुचिकाद्रवैः । तद्वजोत्थकषायैर्वा दिनान्ते च वटीकृतम् ॥ चण्डरुद्रो रसो नाम्ना निष्का] चर्चिकापहम् । द्विनिशा खदिरं निम्बमहिपाठाऽमृता कडु ||
भा० २६
[२०१]
देवदाली इन्द्रयवं तुल्यं गोमूत्र पेषितम् । अनुपाने प्रलेपे च हन्ति कुष्ठं विचर्चिकाम् ॥
सर्पाक्षी, बेत, नील, पलाश ( ढाक ) की छाल, काकमाची (मकोय) और अगस्तिके पत्ते । इन सबके अथवा इनमें से २ - ३ वस्तुओं के रसमें १ दिन पारदको खरल कीजिए, तत्पश्चात् इन्हीं ओषधियोंके रसमें उस पारदको मिट्टी के बरतन में १ दिनरात उपलोंकी अग्निपर पकाइये । पश्चात् स्वांगशीतल होने पर निकाल कर उसमें समान भाग शुद्ध गंधक मिलाकर बाबचीके स्वरस या उसके बीजों के काथमें एकदिन घोटकर गोलियां बना लीजिए ।
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इसे आधा निष्क ( २ || मारोकी) मात्रानुसार सेवन करने से विचर्चिकाका नाश होता है ।
अनुपान - हल्दी, दारु हल्दी, खैर सार, नीमकी छाल, नागकेशर, पाठा, गिलोय, कुटकी, देवदाली ( बिन्दाल) और इन्द्रयव ( इन्दरजौ) समान भाग लेकर गोमूत्र में पीसकर उपरोक्त ' चण्डरुद्र' रस खानेके पश्चात् पीना चाहिये । इन्ही चीज़ों का कुष्ट और विचर्चिका पर लेप भी करना चाहिए ।
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( व्यवहारिक मात्रा २ - ३ रत्ती ।) (१८७६) चण्डसंग्रह गदैककपाटरसः ( र. र. स. । उ. खं. अ. ११; र. रा. सुं. । ग्र.) हिङ्गुल स्थितमहेश्वरवीजं
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पातयन्त्रविधिना हरणीयम् । गन्धङ्कणं मृताभ्रकं तुल्यं कोकिलाक्षमथ चाssयसखल्वे ॥