Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसप्रकरणम्
द्वितीयो भागः।
[ १२३
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तत्पश्चात् उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर बल्लेन प्रमितश्चायं रसः शुण्ठ्या घृताक्तया। धतूरेके पत्रस्वरसमें खरल करके गोल मिर्चके | सेवितो ग्रहणी हन्ति सत्संग इव विग्रहम् ॥ समान गोलियां बना लीजिए ।
पथ्यमत्र प्रदातव्यं स्वल्पाज्यं दधितकयुक् । इनके सेवनसे रक्त, शूल और आम संयुक्त हितं मितं च विशदं लघु ग्राहि रुचिपदम् ॥ ग्रहणी, पुराना अतिसार और पीडायुक्त भयङ्कर पाचनो दीपनोऽत्यर्थमामघ्नो रुचिकारकः । विसूचिका नष्ट होती है।
तत्तदोषधयोगेन सर्वातीसारनाशनः ॥ ___ ( मात्रा २ रत्ती। अनुपान----जायफलका
बनात्यपि मलं शीघ्रं नाध्मानं कुरुते नृणाम् ॥८३।। पानी ।) नोट-वैद्य रहस्यमें इसका नाम “ग्रहणी कपाट" है।
__ शुद्ध पारा और गन्धक १-१ भाग लेकर (१६०७) ग्रहणीगजकेसरी रसः
| कजली बना लीजिए और उसे लोहेकी कढाइमें ( र. र. स. । उ. खं. अ. १६)
डालकर अग्निपर पिघलाकर उसमें १-१ भाग रसगन्धकयोः कृत्वा कज्जली तुल्यभागयोः। कोड़ी भस्म, सोनामक्खी भस्म और शुद्ध गन्धकद्रावयित्वायसे पात्रे रसतुल्यं विनिक्षिपेत ॥७२॥ चूर्ण डालकर लकड़ीसे भली भांति मिलाकर केलेके चराचरभवं भस्म तत्र माक्षिकसम्भवम् । ।
पत्रपर ढाल कर पर्पटी बना लीजिए । तत्पश्चात् गन्धपाषाणसहितं पात्रेलोहमये क्षिपेत ॥७२॥ १-१ भाग पारा गंधक, सोना भस्म और आधा तत्काष्ठेन विलोड्याथ निक्षिपेत्कदलीदले।
भाग कौड़ी भस्मकी कजली बनाकर पुनः पिघलाकर स्वर्ण समांशकं कृत्वा रसेनार्धाशिकं क्षिपेत्॥७३॥
उपरोक्त विधिसे पर्पटी बना लीजिए । अब इन दोनो चराचरभवं भस्म गन्धपाषाणसाधितम । पर्पटियोंको लोहेके खरलमें पीसकर १ कर्ष (१। तोला) तत्काष्ठेन विलोड्याथ निक्षिपेत्कदलीदले॥७४॥ सोनामक्खी भस्म और १ पल (५ तो.) निश्चन्द्र तत आच्छाद्य संचयॆ विधायाऽऽयसभाजने। अभ्रक भस्म और मीठा तेलिया, अतीस, कटेली, अक्षमात्र क्षिपेद्भस्म तत्र माक्षिकसम्भवम् ॥७५॥ मोचरस और जीरेका समभाग मिश्रित चूर्ण उपसम्यनिश्चन्द्रतां नीतं व्योमभस्मपलोन्मितम् ।
रोक्त समस्त औषधसे आधा मिलाकर खरल करके विषं विषा च गान्धारी मोचरसं सजीरकम् ॥७६
अरनी, जलपीपल, गुञ्जा, असगन्ध और पञ्चकोलके सर्व समांशिकं कृत्वा रसे चार्धाशिकं क्षिपेत । रसकी भावना देकर सुखाकर सुरक्षित रखिए । सर्वमेतन्मर्दयित्वा भावयेदतियत्नतः ॥७७॥ । श्रीनन्दिकथित अमृतोपम इस ग्रहणी गज. जयन्त्या च महाराष्ट्रया गञ्जाकिन्याऽश्वगन्धया। केसरी रसको २ रत्तीकी मात्रानुसार घीमें भुनी पञ्चकोलकषायैश्च कुर्याचूर्ण ततःपरम् ॥७८॥ हुई सोंउके चूर्ण के साथ सेवन करनेसे ग्रहणी रोग इति सिद्धो रसःसोऽयं ग्रहणीगजकेसरी। इस प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार सत्संगसे नामतो नन्दिनाप्रोक्तः कर्मतश्च सुधासमः॥७८॥ विग्रह ।
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