Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि
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अपामार्गक्षार (चिरचिटेके खार) के पानीमें । (१५३२) गन्धकरसायनम् (१) तैलमें पिसा हुवा शुद्ध गन्धक, तेल और स्याह (बृ. नि. र., वै. र. । .शू. रो.) मिर्चका चूर्ण मिलाकर उसे रोगीके समस्त शरीरमें पलैक त्रिफलाचूर्ण पला गन्धकस्य तु । मलकर धूपम बिठला दीजिए। तीसरे पहर तक | लोहभस्म तु ककं सर्व संचूर्ण्य मिश्रयेत् ॥ भात खिलाइये और रात्रिको अग्नि तापनेके लिए कां मधुसर्पिभ्यां लेहयेत्सर्वशूलनुत् । आज्ञा दीजिए । फिर दूसरे दिन प्रातःकाल शरीर वातविस्फोटकान्हन्ति सेवनात्तु त्रिमासतः ॥ को भैंसके गोबरसे रगड़कर शीतल जलसे स्नान | गताः केशाः पुनर्यान्ति गन्धकस्य रसायनात् ।। कराइये । तत्पश्चात् शरीरपर गन्धतैल ( अथवा १ पल (५ तोले ) त्रिफलाचूर्ण, आधापल गन्धकके तैल ) की मालिश कराके किञ्चिदुःण शुद्र गन्धक 'चूर्ण, औ १ कर्ष (१। तोला ) लोह जलसे स्नान करा दीजिए।
भस्म को एकत्र मिलाकर खरल कर लीजिए। इस प्रयोगसे पुरानी खुजली. पामा, कुष्ट
___ इसे आधे कर्षकी मात्रानुसार शहद ओर और विचर्चिका नष्ट होती है।
धीमें मिलाकर सेवन करनेसे सर्व प्रकारके शूल
और वातज विस्फोटक नष्ट हो जाते हैं। तीन यह प्रयोग मेरा अपना (प्रयोग लेखकका)
मास पर्यन्त निरन्तर सेवन करनेसे नष्ट केश पुनः अनुभूत है।
उत्पन्न हो जाते हैं। (१५३१) गन्धकयोगः (व, मा. ग. नि.।कुष्टा.) (नोट-धी और शहद बराबर न होने पिबति सकटुतैलं गन्धपाषाणचूर्ण
चाहिएं। आधाकर्ष मात्रा दिन भरमें ३ बार करके रविकिरणसुतप्त पामनो यः पलार्धम् ।।
| खानी चाहिए, एकबारमें नहीं) त्रिदिनतदनुषिक्तः क्षीरभोजी च शीघ्र | (१५३३) गन्धकरसायनम् (२) भवति कनकदीप्त्या कामयुक्तो मनुष्यः ।
( आ. प्र.। अ. २; वृ. नि. र. । वा. व्या.; वै. प्रतिदिन २॥ तोले शुद्ध गन्धक चूर्णको कटु
र.। वाजी., वृ. यो. त. । त. ११२, यो. र. रसा.) तैलमें मिलाकर सूर्य किरणोंसे भली भांति तप्त करके
शुद्धो बलिर्गोपयसा त्रिवार पीने और दुग्धाहार करनेसे ३ दिनमें पामा नष्ट
ततश्चतुर्जातकगुडूचिकाद्भिः। होकर शरीर स्वर्णसदृश कान्तिवान हो जाता है
पथ्याक्षधान्यौषधभृङ्गनीरै तथा काम वृद्धि होती है। (व्यवहारिक मात्रा-१
___ भर्भाव्योऽष्टवारं पृथगाकेण ॥ माशेसे ३ माशे तक)
सिद्धे सितां योजय तुल्यभागां
रसायनं गन्धकसंज्ञितं स्यात् । गन्धकरसपर्पटी (बं. से. । रसा.)
धातुक्षयं मेहगणानिमांयं .. रसपर्पटी देखिये।
शूलं तथा कोष्ठगतांश्च रोगान ॥
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