Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[१०८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[गकारादि - - गिलोयके टुकड़े करके और कूटके उन्हें | एतानि द्विगुणानि स्युर्मर्दयित्वा प्रयत्नतः । पानीमें खूब मलकर कपड़ेमें छान लीजिए, और भावना चात्र दातव्या गजपिप्पलिकाम्बुना।।९७ इस पानीको पात्र में भरकर धूप में रख दीजिए; मात्रा चणकतुल्या तु वटिकेयं प्रकीर्तिता। जब पानी नितर जाय तो उसे धीरे धीरे उतार हन्ति कासं तथा श्वासं असि च भगन्दरम् ॥ दीजिए । बरतनके पेंदे (तली )में जो सफेद सत्व हृच्छूलं पार्थ शूलश्च कर्णरोगं कपालिकाम् । रह जाय उसे सुखाकर निकाल लीजिए। हरेत् संग्रहणीरोग तथाष्टौ जठराणि च ॥९९॥ ___यह सत्व, शंख भस्म, खस, नेत्रबाला, तेज- प्रमेहान्विंशतिश्चैव ह्यश्मरी च चतुर्विधाम। पात, कूठ, आमला, मूसली, इलायची, रेणुका, मुनक्का,
त्रिषु लोकेषु विख्यातो नाम्ना गुणमहोदधिः॥ केशर, नागकेसर, पद्मकन्द (कमलकी जड़) कपूर,
न चानपाने परिहार्यमस्तिसफेद चन्दन, लाल चन्दन, त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च,
न चातपे चाध्वनि मैथुने च । पीपल) मुलैठी, धानकी खील, असगन्ध, शतावर,
यथेष्ट वेष्टाभिरतः प्रयोगेगोखरू, कौंचके बीज, जावित्री, . ककोल, चोरक नरोभवेत्काञ्चनराशिगौरः ॥ (गन्धद्रव्य विशेष-गठिवन भेद ) रससिन्दूर, बंग - शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्र मीठातेलिया, भस्म और लौह भस्म समान भाग तथा मिश्री दालची , ताम्र भस्म, बंगभस्म और अभ्रक भस्म सबके बराबर लेकर सबका महीन चूर्ण कर लीजिए। १-१ भाग तथा तेजपात, सोंठ, मिर्च, पीपल, इसे मिश्री, घी और शहदमें मिलाकर प्रातः
मोथा, बायबिड़, नागकेसर, रेणुका ( संभालुके काल सेवन करनेसे क्षय, रक्तपित्त, पैरोंकी जलन,
बीज) आमला और पीपलामूल २-२ भाग रक्तप्रदर, मूत्राघात, मूत्रकृच्छू, वातकुण्डलिका, प्रमेह
लेकर महीन चूर्ण करके गजपीपलके काथमें घोटऔर भयङ्कर सोम रोगका नाश होता है।
कर चने बराबर गोलियां बना लीजिए। गुडूच्यादि लौहम्
इनके सेवनसे खांसी, श्वास, बवासीर, भग
न्दर, हृदय और पसलीका शूल, कर्णरोग, कपालि ( चूर्ण प्रकरणमें देखिए )
का ( दन्तरोग विशेष) संग्रहणी, आठ प्रकारके (१५६६) गुणमहोदधिरसः
उदररोग, बीस प्रकारके प्रमेह और चार प्रकारका (र. चि. म. । स्तव. ११; भै. र. । कास.)। अश्मरी (पथरी) रोग, नष्ट होता है; और शरीर सूतकं गन्धकश्चैव विषं चापि वराङ्गकम् ।। काञ्चनसदृश तेजोमय हो जाता है। मृततानं च बंङ्गं च गगनं च समांशकम् ॥९५॥ | ___ इस त्रिलोक विख्यात गुण महोदधि रसके पत्रं त्रिकटुकं मुस्तं विडङ्गं नागकेसरम् । सेवन कालमें किसी प्रकारके अन्न पान, धूप, रेणुकामलकञ्चैव पिप्पलोमूलमेव च ॥९६॥ मार्गगमन मैथुनादिसे परहेज करनेकी आवश्यकता
१ गन्धकं लौहमिति पाठान्तरम् ।
For Private And Personal