Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसमकरणम् ]
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द्वितीयो भागः ।
अथ गकरादिरसप्रकरणम्
(१४८७) गगनगर्भरस: (रसे. मं. ( अ. ३ ) अभ्रं तालकताम्रतीक्ष्ण
मुरभं मृतं समानांशकम् ।
भार्गीकट्फलधान्यकाम्बु नि वचा शृङ्गी च शुण्ठी शिवा ॥ एषां पर्यटकद्रवेण
रचिता गद्याण मात्रावटी ।
लीढा सा मधुना निहन्ति सहसा श्लेष्मान्वितं मारुतम् ।। ९ ।।
अभ्रक भस्म, हरताल भस्म, ताम्र भस्म,
लोह भस्म, गन्धक ( शुद्ध ), शुद्ध पारद, और भारंगी, कायफल, धनिया, नेत्र बाला, बच, काकड़ासिंगी, सोंठ और हैड़का चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे और गन्धककी कजली बना लीजिए, तपदचात् अन्य समस्त ओषधियां मिलाकर पित्तपापड़े स्वरस या काथमें घोटकर ६-६ माशेकी गोलियां बना लीजिय ।
इन्हें शहद में मिलाकर चाटने से कफयुक्त वायु अत्यन्त शीघ्र नष्ट होती है ।
( व्यवहारिक मात्रा १ माशा ) (१४८८) गगनगर्भावडी ( रस: ) ( र. र. स. । उ. खं. अ. २१; र. रा. सुं. । वा. व्या. मृताभ्रं तीक्ष्णताम्रं च मृतं तालकगन्धकम् । भार्गी शुण्ठी वा धान्यकम्पिल्लं चाभयाविषम् avinashi भक्षयेद्वटीम् । arasलेष्महरा ह्या वटी गगनगर्भिता ||
१ तारमिति रसकामधेनौ ।
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शुद्ध पारा, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ताम्र भस्म, हरताल भस्म, शुद्ध गन्धक और भारंगी, सोंठ, बच, धनिया, कबीला, हैड़ और मीर तेलिये का चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारद और गन्धकको घोटकर कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाकर पित्तपापड़ेके काथ या स्वरसमें घोटकर ४-४ माशेकी गोलियां बना लीजिए ।
यह " गगनगर्भितावटी " वातकफको अत्यन्त शीघ्र नष्ट कर देती है ।
( मात्रा १ माशा । अनुपान मधु )
(१४८९) गगनमुखरस : (रमे. मं. । अ. ३) गगनं स्याद्र से जीर्ण तीक्ष्णं शुल्वं सुरायसम् । वज्रामयरसे घृष्टं सूर्यावर्त्तविनाशनम् ॥ २०५
अभ्रक ग्रास युक्त पारद, तीक्ष्ण लोहभस्म, और कान्त लोहभस्म ( समान भाग लेकर ) स्नुही ( सेंड के दूध में पीसकर सेवन करने से सूर्यावर्त मस्तकशूल भेद ) रोग नए होता है । (१४९०) गगनसुन्दरो रसः
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(भै. र. र. रा. सुं. । व्यराति. ) टङ्कणं दरदं गन्धुमभ्रकञ्च समं समम् । दुग्धिकाया रसेनैव भावयेच्च दिनत्रयम् ॥ द्विगु मधुना देयं श्वेतसर्जस्य वल्लकम् । विविधं नाशयेद्रक्तं ज्वरातीसारमुल्वणम् ॥ पथ्यं तपच्छागमामशूलं विनाशयेत् । अद्धिकरो ह्येष रसो गगनसुन्दरः ॥
सुहागेकी खील, शुद्ध हिंगुल ( शंगरफ) शुद्ध गन्धक और अभ्रक भस्म, समान भाग लेकर