Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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[८६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[गकारादि अतिसारेषु पित्तेषु देयमेतद्रसायनम् । भक्षयेच पिवेत्क्षीरं कर्फेकं त्रिफलामनु । प्रत्यहं प्रातरुत्थाय यः करोति सदा नरः ॥ रात्रौ शुण्ठी कणांखादेवकादमरो भवेत् ॥ तेजस्वी वलवाञ्छरो बलेन गजसन्निभः । जीवेद् ब्रह्मदिनं वीरः स्याद्रसो गगनेश्वरः।। स्तम्भितो तेन वा हस्ती पदमेकं न गच्छति ॥ शुद्ध पाग्द, अभ्रक भम्म, कान्त लोहभम्म
धान्याभ्रकका सूक्ष्म चूर्ण करके उसे एक दिन और तीक्ष्ण लोहभम्म, समान भाग लेकर सबको मोथेके रस में घोट कर टिकिया बना लीजिए और ३ दिन तक भागंग और आमलके रसकी छायामें धूपमें सुखाकर दो शरावोंमें बन्द करके ऊपरसे भावना दीजिए । पश्चात् उसमें समान भाग मिश्री, कपर मिट्टी करके सुखाकर गजपुटमें फूंक दीजिए। शहद और घी मिलाकर मिट्टी के बरतनमें भरकर स्वांगशीतल होने पर निकालकर पुनः मोयेके रसमें अनाजके ढेरमें दबा दीजिए और एक मास पश्चात घोटकर पुट दीजिए। इसी प्रकार २१ पुट देनेसे निकालकर काममें लाइये। अभ्रक निश्चन्द्र हो जायगा।
__इसे प्रति दिन ३ निष्क ( १२ माशे ) की इस प्रकार निर्मित असककी निश्चन्द्र भम्म मात्रानुसार खाकर पश्चात १ कर्ष (१। तोला) १ भाग और कान्त लोह भस्म १ भाग लेकर त्रिफला चूर्ण दृधके साथ सेवन कीजिए । और दोनोंको खरल में धोटकर एक जीव कर लीजिए। रात्रिको सोंठ और पीपल ( १॥ माशेकी मात्रानुइसी का नाम " गगनायस रसाया " है। सार ) भक्षण करते रहिए । इस प्रकार १ वर्ष
इसे प्रति दिन प्रातःकाल ६ माशकी मात्रा- तक सेवन करनेसे मनुष्य वीर होकर १ ब्रह्म दिन नुसार शीतल जलानुपानसे सेवन करनेसे अठारह ( २००० दिव्य युग ) पर्यन्त जीवित रहता है । प्रकारके प्रमेह, वातकफज रोग, और पित्तन । (१४९८) गाधरचूर्णम् (रमः) अतिसार नष्ट होता है।
(बृहद ) ( #. र. । ग्रह.) इसे सदैव सेवन करते रहनेसे मनुष्य तेजस्वी, बिल्वं मोचरसं पाठा धातकी धान्यमेव च । शुर और हस्तीसदृश बलशाली हो जाता है। समगा नागरं मुसतं तथैवातिविषा समम् ।। यदि वह हाथी को रोक ले तो हाथी एक पग भी अहिफेनं लोधकश्च दाडिमं कुटजं तथा । नहीं चल सकता।
पारदं गन्धकश्चैव समभागं विचूर्णयेत् ॥ ( व्यवहारिक मात्रा-२-४ रत्ती) तक्रेण खादयेत्पातश्चर्णगङ्गाधरं महत् । । (१४९७) गगनेश्वररमः (र. र. रसा. । उ. २) ज्वरमष्ट विधं हन्यादतीसारं सुदुस्तरम् ।। पारदो गगनं कान्तं तीक्ष्णं च मारित समम् । वेलगिरी, मोचग्स, पाठा ( जलजमनी) भृङ्गधात्रीफलद्रावैश्छायायां भावयेव्यहं ॥ धायके फूल, धनिया, मजीठ, सीउ, मोथा अतीस, सितामध्वाज्यकैस्तुल्यैः सर्व भाण्डे निरोधयेत्। अफीम, लोध, अनारदाना, कुडेकी छाल, पारा और धान्यराशौ स्थितं मासं ततो निष्कत्रयं समम्॥ गन्धक समान भाग लेकर चूर्ण बना लीजिए।
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