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( ७३ ) सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥
अपने द्रव्य सुक्षेत्र काल अरु भाव चतुष्टय से नित ही। सभी वस्तुयें अस्तिरूप ही, नास्तिरूप ही हैं वे भी॥ परद्रव्यादि चतुष्टय से यह कौन नहीं स्वीकार करे ।
यदि नहिं माने तव मत हे जिन ! वस्तु व्यवस्था नहीं बने ॥१५॥ क्रमापित-द्वयाद् द्वैतं सहावाच्यमशक्तितः। अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगाः स्वहेतुतः ॥१६॥
क्रम से स्वपर चतुष्टय से ही, वस्तु उभय धर्मात्मक हैं। युगपत् द्वय को नहिं कह सकते, अतः "अवाच्य" वस्तु वह है ॥ बचे शेष त्रय भंगों में यह, अवक्तव्य उत्तर पद हैं।
सत् असत् उभय पदों के आगे, अवक्तव्य निज हेतुक है ॥१६॥ अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येक-मिणि। विशेषणत्वात्साधयं यथा भेदविवक्षया ॥१७॥
एक वस्तु में अस्ति धर्म अपने प्रतिषेधी नास्ति के। बिना नहिं रह सकता-अविनाभावी कहलाता इससे ।। क्योंकि विशेषण है जैसे अन्वय हेतू व्यतिरेक बिना।
नहीं रहे अविनाभावी है ऐसा यह दृष्टांत बना ॥१७॥ नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्यकर्मिणि। विशेषणत्वावैधयं यथाऽभेद-विवक्षया ॥१८॥
एक वस्तु में नास्ति धर्म भी, स्वविरोधी अस्ति के साथ । अविनाभावी ही रहता है, क्योंकि विशेषण भी वह खास ।। जैसे हेतू के प्रयोग में, है व्यतिरेक हेतु नित ही।
अन्वय हेतू के सह रहता, अविनाभावी सुघटित ही॥१८॥ विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः। साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥१६॥
वस्तु सदा विधिप्रतिषेधात्मक, है विशेष्य धर्मी विख्यात । क्योंकि शब्द के गोचर है वह, सत् असत्रूप जग विख्यात ।। यथा साध्य-अग्नि का साधन धूम अग्नि का हेतू है। वही अपेक्षा से हेतू भी जल के लिये अहेतू है ॥१६॥
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