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भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद
[ १३५ प्रत्यासत्तिविशेषस्य प्रासादादिसमूहस्य नगरत्वोपवर्णनात् । तत्रानुस्यूतप्रत्ययहेतोगरत्वसामान्यस्य सिद्धेस्तदुपलम्भपूर्वक स्तद्विशेषे संशयो न विरुध्यत एव । ततः करोत्यर्थसामान्योपलम्भात्तद्विशेष यज्याद्यर्थस्यानुपलब्धेरनेक विशेषस्मरणाच्च युक्तस्तत्र 'सन्देहः । न हि तदेव यज्यादिकमनियमेन 'करोतीत्युपलब्धुं शक्यम् । 1 करोत्यर्थसामान्यासम्भवे1 सत्त्वसामान्यासम्भवे घटादिकमिवास्तीत्यनियमेन12 13पराऽपरसामान्येषु पुनः सामान्यमित्यनियमेनोपलम्भो गौण एव-सामान्येषु सामान्यान्तरासम्भवात् । तत्सम्भवे वानवस्थाप्रसङ्गात् । न चैवं15 16सर्वत्र सामान्यमन्तरेणेवानियतप्रत्ययो17 गौण इति वक्तुं 18शक्यम्--1"मुख्याभावे गौणास्यानुपपत्तेः । 20विकल्पबुद्धौ प्रतिभासमान: 21सामान्याकारो मुख्यः 22स्वलक्षणेषु
है। उस नगर सामान्य की उपलब्धि पूर्वक उन महलादि विशेष में संशय उत्पन्न होता है यह बात विरुद्ध नहीं है।
___ इसलिए करोति क्रिया के अर्थ सामान्य की उपलब्धि होने से यजति पचति रूप विशेष यज्यादि अर्थ की अनुपलब्धि होने से एवं यजते, पचति इत्यादि अनेक विशेषों का स्मरण होने से वहाँ संदेह होना युक्त ही है। क्योंकि वे ही यज्यादिक क्रियायें बिना नियम से करोति इस क्रिया के अर्थ को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हैं ।
बौद्ध-करोति क्रिया का अर्थ सामान्य न होने पर सत्त्व सामान्य के असंभव में वह घटादि के समान है । इस प्रकार के अनियम से पर सामान्य-महासत्ता और अपर सामान्य-यजति पचति इत्यादि उस विशेष भाव रूप विशेष सत्ता हैं। पुनः सामान्य है इस प्रकार की उपलब्धि गौण ही है क्योंकि सामान्य में भिन्न सामान्य असंभव है। अथवा यदि सामान्य में भी सामान्यांतर मानो तो अनवस्था का प्रसंग आ जावेगा।
भाट्ट – इस प्रकार से परापर सामान्यों में सामान्य की उपलब्धि को गौणता से सभी वस्तुओं में सामान्य के बिना ही अनियत-सामान्य प्रत्यय गौण है ऐसा आप सौगत का कहना शक्य नहीं है । क्योंकि मुख्य सामान्य के अभाव में गौण हो हो नहीं सकता है ।
1 बसः । संयुक्तसंयोगाल्पीयस्वलक्षण । (ब्या० प्र०) 2 नगरं नगरमिति । 3 प्रासादादो। 4 यजति पचतीत्यादि । 5 यजते पचतीत्यादि । (ब्या० प्र०) 6 नगरेऽनुगतज्ञानकारणात् । 7 तस्मादित्युपसंहारग्रन्थं निराकुर्वन्नाह भाट्टः । 8 अभेदेन सामर्थ्येन । १ करोईन । 10 सौगतः। 11 पूर्वपक्षानुमाने हेतविरुद्धः प्रतिभावः । हेतुर्गाभतं विशेषणं । (ब्या० प्र०) 12 सामान्येन । (ब्या० प्र०) 13 ननु परापरेषु सामान्येषु परं सामान्यं महासत्ता अपरं करोति पचति यजतीत्यादि तद्विशेषस्वभाव एव तदभावेपि (सामान्यभावे) इदं सामान्यमिदं सामान्यमिति सामान्यमन्तरेणापि सामान्यमुपलब्धुं शक्यत एवेत्युक्ते आह। 14 बौद्धाभिप्रायमनूद्य दूषयति । (ब्या० प्र०)। 15 परापरसामान्येषु सामान्योपलम्भस्य गौणत्वप्रकारेण। 16 वस्तुषु । 17 सामान्यप्रत्ययः । 18 हे सौगत ! 19 मुख्यसामान्यस्य । 20 सौगतः। 21 अन्यापोहो वहिरर्थः (सत्याकार इति पाठान्तरम्)। 22 अणुक्षणिकेषु ।
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