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मीमांसक द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ]
प्रथम परिच्छेद
[ २५५ ये तु मन्वादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयोविदाम् । त्रयीविदाश्रित ग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तयः ॥३॥
इति । न च प्रमाणान्तरं सदुपलम्भक सर्वज्ञस्य साधकमस्ति । [ अत्र भरतक्षेत्रे, दुःषमकाले सर्वज्ञो नास्तीति; मा भूत् किंतु अन्यत्र विदेहादिदेशे चतुर्थकाले वा सर्वज्ञः सिद्धयति
न वेति विचारः क्रियते ] मा भूदत्रत्येदानीन्तनानामस्मदादिजनानां सर्वज्ञस्य साधकं प्रत्यक्षाद्यन्यतमं देशान्तरकालान्तरत्तिनां केषाञ्चिद्भविष्यतीति चायुक्त ।
'यज्जातीयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेप्यभूत्" इति वचनात् । तथा हि। विवादाध्यासिते देशे काले च प्रत्यक्षादिप्रमाणमत्रत्येदा
त्रयीविदों में प्रधानता से जो मन्वादि ऋषि सिद्ध हैं उन त्रयीविदों के द्वारा किये गये ग्रंथ उनके आश्रित हैं वे वेद से उत्पन्न हुये हैं। अर्थात् ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद ये तीन वेद हैं इन तीनों वेदों के आश्रित जो कथन है वह त्रयीविदाश्रित है अतः मन्वादि रचित ग्रन्थ त्रयीविदाश्रित कहलाते हैं ॥३॥
इसलिये और कोई भी सदुपलंभक-सत्ता को ग्रहण करने वाला प्रमाण नहीं है जो कि सर्वज्ञ के सद्भाव को ग्रहण कर सके ।
[ इस भरतक्षेत्र में और इस पंचम काल में सर्वज्ञ नहीं है तो न सही किन्तु विदेहादिक्षेत्र में और
____ चतुर्थ आदि काल में सर्वज्ञ सिद्ध है या नहीं ? इस पर विचार किया है। ]
यदि आप कहें कि यहाँ पर इस समय जन्म लेने वाले हम लोगों के पास सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाला प्रत्यक्षादि में से कोई भी एक प्रमाण भले ही न हो किन्तु देशांतर-कालांतरवर्ती किसी न किसी मनुष्य को सर्वज्ञ के अस्तित्त्व को सिद्ध करने वाला प्रत्यक्षादि में से कोई न कोई प्रमाण होगा ही। अर्थात् देशांतर-विदेह क्षेत्र आदि देश एवं कालांतर-चतुर्थ काल आदि काल में प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा किसी न किसी पुरुष को सर्वज्ञ का ज्ञान होता ही होगा। आप जैनादि का यह कथन भी अयुक्त है।
श्लोकार्थ-"जिस जातीय-दूरादि नियत अर्थ को विषय करने वाले प्रमाणों से जिस जातीय पदार्थों को इस समय लोक-सभी जन देखते हैं। उस प्रकार का प्रत्यक्षादि ज्ञान ही देशांतर और कालांतर में भी होगा ॥" ऐसा वचन देखा जाता है। तथाहि "विवादाध्यासित देश-विदेहादि
1 मध्ये। 2 “स्त्रियामृक् सामयजुषी इति वेदास्त्रयस्त्रयो" इत्यमरः। 3 त्रयीविद्भिराश्रिताः (व्याख्याताः) स्मृतिरूपा ग्रन्था येस्मृतिग्रन्थास्ते त्रयीविदाश्रितग्रन्थाः । त्रयीवित्प्रधानमन्वादिकृताः स्मृतिसाधारणास्त्रयीविद आश्रयन्तीति भावः। 4 बसः । (ब्या० प्र०) 5 किंच । (ब्या० प्र०) 6 सत्त्वं सर्वज्ञास्तित्वम् । 7 दूरादिनियतार्थगौचरः। 8 येषां देशांतरादिस्थानां सजातीयस्तत्सदृशैरित्यर्थः । (ब्या० प्र०)
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