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सर्वज्ञसिद्धि ] प्रथम परिच्छेद
[ ३५३ शास्त्राविरोधित्वसाधनम् । कथमत्र कारिकायामनुपात्तो भिषग्वरो दृष्टान्तः कथ्यते इति चेत् स्वयं ग्रन्थकारेणान्यत्राभिधानात् ।
"त्वं सम्भवः संभवतर्षरोगः, सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके।
आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो, वैद्यो यथा नाथ रुजां प्रशान्त्यै ॥" इति स्तोत्रप्रसिद्धः । इह दृष्टान्तावचनं तु संक्षेपोपन्यासान्न विरुध्यते, 'अन्यथानुपपन्नत्वनियमैकलक्षणप्राधान्यप्रदर्शनार्थं वा ।
अब 'स त्वमेवासि निर्दोषो' इस कारिका में यह स्पष्टतया कह रहे हैं कि वह सर्वज्ञ और निर्दोष भगवान् आप ही हैं । पुनः प्रश्न यह होता है कि आप ही निर्दोष क्यों है ? क्योंकि यहाँ परीक्षा प्रधानी शिष्यगण केवल आगम मात्र से ही भगवान् को निर्दोष मानने को तैयार नहीं हैं। उनको अचार्य समझाते हैं कि सर्वज्ञ भगवान् निर्दोष इसलिये हैं कि उनके वचन तर्क और आगम से अविरोधी हैं क्योंकि आपका शासन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से बाधित नहीं है। लोक व्यवहार में उत्तम वैद्य रोगी के रोग का कारण बता देता है और स्वस्थता के कारण भी बता देता है, अब यह स्वस्थ हो चुका है इसके ज्वर आदि विकार निकल चुके हैं । वैद्य के ऐसे निर्णय पर आबाल गोपाल जन विश्वास कर लेते हैं ऐसा देखा जाता है । अब आगे इस बात को सिद्ध कर रहे हैं कि भगवान् के शासन में मान्य मोक्ष और संसार एवं इन दोनों के कारण भी विरोध रहित तर्क, आगम आदि से सिद्ध हैं ।
प्रश्न-इस कारिका में दृष्टांत न होते हुये भी भिषग्वर का दृष्टांत आपने क्यों लिया ?
उत्तर-स्वयं ग्रंथकार श्री समंतभद्राचार्य स्वामी ने अन्यत्र "स्वयंभूस्तोत्र" में भिषग्वर का दृष्टांत ग्रहण किया है यथा
"त्वं संभवः संभवतर्षरोगैः, संतप्यमानस्य जनस्य लोके ।
आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो, वैद्यो यथा नाथ रूजां प्रशांत्यै ।।" अर्थ-हे संभवनाथ भगवान् ! संसार में तृष्णा रूपी रोग से पीड़ित हुये जीवों के लिये आप ही अकारण वैद्य हैं। जिस प्रकार से लोक में रोगों की शांति के लिये वैद्य होते हैं।
अतः यहाँ कारिका में संक्षेप से कथन होने से दृष्टांत को नहीं कहने पर भी विरोध नहीं आता है अथवा हेतु में "अन्यथानुपपत्ति" ही निश्चित एक लक्षण प्रधान है ऐसा बतलाने के लिये भी दृष्टांत नहीं दिया है।
1 सिद्धमस्ति, विषयविषयिणोरभेदोपचारात। 2 तटस्थ: शंकते। 3 समन्तभद्राचार्येण। 4 संभवः संसारः। तर्षस्तृष्णा। 5 प्रत्युपकारनिरपेक्षः । 6 कारिकायाम्। 7 यथा हेतोरन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं पक्षधर्मत्वाभावेऽपि समर्थ । (ब्या० प्र०) 8 पक्षधर्मत्वादिपञ्चरूपं विनापि अन्यथानुपपन्नत्वनियमलक्षणाद्धेतोः साध्यसिद्धेः कारिकायामदृष्टान्तवचनम् ।
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