Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 495
________________ ४१२ ] अष्टसहस्री - [ कारिका ६[ यत्नेन परीक्षितकार्याणि कारणान्यनुवर्तते ] ___ 'यत्नतः परीक्षितं कार्य कारणं नातिवर्तते इति चेत् स्तुतं' * । 'प्रस्तुतं, व्यापारादिविशेषस्यापि किञ्चिज्ज्ञरागादिमसंभविनो यत्नतः परीक्षितस्य भगवति ज्ञानाद्यतिशयानतिवत्तिसिद्धे: । एतेन यत्नतः परीक्षितं व्याप्यं 'व्यापकं नातिवर्तते इति ब्रुवतापि स्तुतं प्रस्तुतमित्युक्तं वेदितव्यं, पुरुषविशेषत्वादेः स्वभावस्य व्याप्यस्य सर्वज्ञत्वव्यापकस्वभावानतिक्रमसिद्धेस्तद्वदविशेषात् । ततोयं प्रतिपत्तुरपराधो नानुमानस्येत्यनुकूलमाचरति । 13मन्दतरधियाँ धूमादिकमपि परीक्षित्मक्षमाणां "ततो धूमध्वजादिबुद्ध सकते यह बात कही जा सकती है। जैनाचार्य कहते हैं कि भाई ! आपके यहाँ भी प्रत्येक वस्तु की क्षण में क्षय होने वाली शक्ति दिखती है क्या ? मतलब जो चीज दिखती नहीं उनके विषय में भी कुछ न कुछ मान्यता आप रखते ही हैं । उसी प्रकार से यद्यपि सर्वज्ञ का स्वभाव दिखता नहीं है फिर भी अहंत ही सर्वज्ञ हैं इसका निर्णय करना ही चाहिये। [ यत्न से परीक्षित कार्य कारण के अनुयायी होते हैं ] बौद्ध-यत्न से परीक्षित कार्य कारण का उल्लघन नहीं करते हैं। जैन-उक्त बात से तो आपने हमारे इष्ट का ही समर्थन कर दिया है ।* व्यापार व्याहार आदि विशेष भी जो कि किचिज्ज्ञ रागादिमान् जीवों में असंभवी हैं और यत्न से परीक्षित हैं वे भगवान में सिद्ध ही हैं क्योंकि ज्ञानादि अतिशयों को भगवान् में अबाधित रूप से सिद्धि है । इस प्रकार यत्न से परीक्षित व्याप्य हेतु व्यापक का उल्लंघन नहीं करता है ऐसा कहते हुए आपने भी हमारे प्रकृत का ही समर्थन कर दिया है ऐसा समझना चाहिये। पुरुष विशेषत्व आदि स्वभाव व्याप्य हैं उसका सर्वज्ञत्व व्यापक स्वभाव से अनतिक्रम (अबाधितपना) सिद्ध है जैसे कि यत्न से परीक्षित कार्य कारण का उल्लंघन नहीं करते हैं उसी प्रकार पुरुष विशेषत्व आदि व्याप्य सर्वज्ञत्व आदि रूप व्यापक स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करते हैं। दोनों जगह व्याप्य-व्यापक भाव में कोई अन्तर नहीं है अर्थात् समानता ही है। इसलिये यह साध्य का व्यभिचार लक्षण दोष प्रतिपत्ता का अपराध है अनुमान का नहीं, 1 सौगतः। 2 जैनः प्राह-त्वया सौगतेन अस्माकमिष्टं कथितम् (समथितम्)। 3 समथितं । स्याद्वादी वदति हे सौगत ! त्वया अस्माकं प्रस्तुतं प्रारब्धं इष्टं वोक्तं । कस्मात् ? क्षयोपशमज्ञानिनि रागादिमति पुरुषे असंभवी यत्नतः परीक्षितो व्यापारादिविशेष: भगवति ज्ञानाद्यतिशयं नातिवर्तते यतः । दि. प्र.। 4 प्रकृतम्। 5 (व्याहारादीति पाठान्तरम्)। 6 अनुल्लङ्घनात् । 7 शिशपात्वं । वृक्षत्वं । (ब्या० प्र०) 8 सोगतेन। 9 यथा यत्नतः परीक्षित कार्य कारणं नातिवर्तते तथा पुरुषविशेषत्वादिस्वभावो व्याप्यः सर्वज्ञत्वादिरूपव्यापकस्वभावं नातिवर्तते, उभयत्र व्याप्यव्यापकभावयोविशेषाभावात् । 10 तेन युक्तिशास्त्राविरोधाद्यनेकप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 11 साध्यव्यभिचारलक्षणः । 12 बौद्धः। 13 नराणां । (ब्या० प्र०) 14 धूमादिकात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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