Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 502
________________ सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं ] प्रथम परिच्छेद [ ४१६ णमपेक्ष्यते एवेति चेत्, सहकारिकारणान्तरं न वै 'नियतमपेक्षणीयं, नक्तञ्चरादेः संस्कृतचक्षुषो वाऽनपेक्षितालोकसन्निधेः' रूपोपलम्भात् । न चैव संवित्करणपाटवयोरप्यभावेविवक्षामात्रात्कस्यचिद्वचनप्रवृत्तिः प्रसज्यते, संवित्करणवैकल्ये यथाविवक्षं वाग्वत्तेरभावात् । न हि शब्दतोर्थत श्च शास्त्रपरिज्ञानाभावे तव्याख्यानविवक्षायां सत्यामपि तद्वचनप्रवृत्तिई श्यते, करणपाटवस्य चाभावे स्पष्टशब्दोच्चारण', 'बालमुकादेरपि तत्प्रसङ्गात् । ततश्चैतन्यं करणपाटवं च वाचो हेतुरेव नियमतो, न विवक्षा, विवक्षामन्तरेणापि सुषुप्त्यादौ तद्दर्शनात् । [ कश्चिन्मन्यते दोषसमूहः सर्वज्ञवचने हेतुस्तस्य निरासः क्रियते जनः ] न च 'दोषजातिस्तद्धेतुर्यतस्तां वाणी12 नातिवर्तेत', 14तत्प्रकर्षापकर्षानुविधानाभावाद्भी रूप की उपलब्धि कर लेते हैं। विवक्षा के अभाव में वक्तृत्व का सद्भाव देखा जाता है। इस प्रकार से ज्ञान और इन्द्रियों की कुशलता के अभाव में भी विवक्षा मात्र से किसी की वचन प्रवृत्ति का प्रसंग नहीं आता है क्योंकि ज्ञान एवं इन्द्रियों की विकलता में विवक्षा मात्र से वचन प्रवृत्ति का अभाव है।* किसी को शब्द से और अर्थ से शास्त्र के परिज्ञान का अभाव है फिर भी उसको व्याख्यान करने की इच्छा के होने पर भी उस शास्त्र विषयक वचन की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है। इंद्रिय की में स्पष्ट शब्द का उच्चारण भी नहीं हो सकता है अन्यथा बालक मक आदि भी स्पष्ट शब्दोच्चारण करने लगेंगे। इसीलिए चैतन्य और इंद्रिय की पटुता ही नियम से वचन में हेतु हैं न कि विवक्षा क्योंकि विवक्षा-बोलने की इच्छा के बिना भी सुषुप्त-सोते हुए आदि जनों के वचन प्रवृत्ति देखी जाती है। [ कोई कहता है कि दोषों का समुदाय ही सर्वज्ञ के बोलने में हेतु है, जैनाचार्य इस बात का निषेध करते हैं ] तथैव दोष समूह भी वचन प्रवृत्ति में हेतु नहीं है कि जिससे वाणी उनका उल्लंघन न करे। अर्थात् वाणी दोष समूह का उल्लंघन करती ही है क्योंकि उस दोष समूह के प्रकर्ष अपकर्ष के अनुविधान का अभाव है बुद्धि के समान ।* अष्टशती दिल्ली प्रति एवं मुद्रित प्रति में 'वाणी' ऐसा पाठ है जिसका अर्थ है कि दोष समूह उस वचन प्रवृत्ति में हेतु नहीं है कि जिससे उस वाणी का उल्लंघन न कर सकें अर्थात् उल्लंघन करते ही हैं। 1 नियमेन । 2 अञ्जनादिना । 3 सन्निधेरूपो इति पा. । (ब्या० प्र०)4 प्रतीते: । (ब्या० प्र०) 5 विवक्षाभावेपि वक्तृत्वसद्भावप्रकारेण। 6 विवक्षानतिक्रमेण । (ब्या० प्र०) 7 शब्दमाश्रित्य । (ब्या० प्र०) 8 (न हीति पूर्वेणान्वयः)। 9 अन्यथा (ब्या० प्र०) 10 अन्यथा संवित्करण पाटवाभावे स्पष्टवाकप्रवत्तिर्भवति चेत्तदा बालमुकादेरपि भवतु कोऽर्थः । तथा न दृश्यते । दि. प्र.। 1। द्वेषादि। समूहः। 12 'वाणी' इति पा० दिल्ली अष्टशती प्रतो मुद्रितप्रती च । (व्या० प्र०) 13 किन्तु अतिक्रमेव । 14 तस्या दोषजातेः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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