Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 526
________________ प्रथम परिच्छेद [ ४४३ ___सर्वाप्तवादी–सभी को आप्त मानने वाले, सभी को आप्त कहने वाले, वैनयिकमिथ्यादृष्टि । दोष-अज्ञानादि, भावकर्म । आवरण-ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म । व्यावृत्ति-पृथक् करना। निवृत्ति-अभाव । विवेक-ज्ञान । भेद करना। विप्रकर्षा-दूरवर्ती पदार्थ । व्याप्ति-इसके होने पर ही उसका होना, जैसे अग्नि के होने पर ही धूम का होना । व्यवच्छेद-दूर करना, हटाना । निराकरण करना। परिच्छेद–जानना। परमप्रकर्ष-उत्कृष्ट अवस्था, चरम अवस्था । लक्ष्य-जिसका लक्षण किया जावे। लक्षण-मिले हुये अनेक धर्मो में से पृथक करने वाले किसी एक धर्म को लक्षण कहते हैं, जैसे जीव का लक्षण उपयोग है। अविवक्षित-जिसको कहने की इच्छा नहीं है, जो विद्यमान होते हुये भी अप्रधान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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