Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 524
________________ प्रथम परिच्छेद [ ४४१ मीमांसक-वेद को अपौरुषेय मानने वाले, सर्वज्ञ को न मानने वाले । ___ वैशेषिक-द्रव्य गुण आदि सात पदार्थ मानने वाले, समवाय सम्बन्ध से वस्तु के अस्तित्व को कहने वाले । ईश्वर सृष्टि कर्तृत्ववादी। नैयायिक-प्रमाण प्रमेय आदि सोलह पदार्थ मानने वाले, ईश्वर कर्तृत्ववादी। वेदांती-ब्रह्माद्वैतवादी, सत्ताद्वैतवादी या विधिवादी सब पर्यायवाची नाम हैं। अद्वैत- सर्वथा सम्पूर्ण चराचर जगत् को एक रूप मानने वाले। इनमें पाँच भेद हैं-ब्रह्माद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत और शून्याद्वैत । ___ तत्त्वोपप्लववादी-तत्त्वों को कहकर उनका अभाव करने वाले, कल्पना मात्र ही तत्त्व को मानने वाले। शून्यवादी-सम्पूर्ण जगत् को असत्य या कल्पना रूप कहने वाला बौद्ध का माध्यमिक नामक एक भेद। जैन-द्रव्यदृष्टि से सभी वस्तु को नित्य, अनादि निधन एवं पर्याय दृष्टि से सभी वस्तु को उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक सत् रूप मानने वाले स्याद्वादी, कर्म शत्रु विजेता ऐसे जिन भगवान् के उपासक। अन्यापोह-अन्य का अभाव करके कथन करना। बौद्ध शब्दों का अर्थ अन्यापोह करते हैं। जैसे 'गो' इस शब्द को सुनने पर 'यह अश्व नहीं हैं, हाथी नहीं हैं, इत्यादि अर्थ करना अन्यापोह है। प्रतिपत्ति-ज्ञान, संप्रतिपत्ति-विसंवाद रहित जानना। विप्रतिपत्ति-विसंवाद का होना। सामान्य – अन्वय रूप धर्म या सत् रूप धर्म । जैसे सभी वस्तुयें अस्ति रूप हैं या सभी गायों में गायपना है यही सामान्य धर्म है। विशेष-व्यावृत्ति रूप धर्म, जैसे यह गाय काली है, यह सफेद है इन धर्मों को विशेष कहते हैं। प्रत्यासत्ति-निकटता का होना। उपलब्धि लक्षण प्राप्ति-जो दिखने, उपलब्ध होने योग्य है उसकी प्राप्ति उपलब्धि लक्षण प्राप्तानुपलब्धि-जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है उसकी प्राप्ति का न होना, जैसे कमरे में घट उपलब्ध होने योग्य है उसका न होना । इसे दृश्यानुपलब्धि भी कहते हैं। अनुपलब्धि लक्षण प्राप्तानुपलब्धि-जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य नहीं है उसकी प्राप्ति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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