Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 523
________________ ४४० ] पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या आप्त- जो अज्ञानादि दोष, ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्म रूप आवरण से रहित निर्दोष, सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ और युक्तिशास्त्र से अविरोधी वचन बोलने वाले हितोपदेशी हैं । अष्ट तहसी अन्यथानुपपत्ति - अन्य प्रकार से नहीं होना, जैसे अग्नि रूप साध्य के अभाव में धूम रूप साधन का न होना । तथोपपत्ति - उस प्रकार होना, जैसे अग्नि के होने पर ही धूम का होना । व्यभिचार दोष – जो हेतु पक्ष, सपक्ष में रहते हुये विपक्ष में चला जावे जो व्यभिचारी या अनैकांति कहलाता है। जैसे 'आकाश नित्य है क्योंकि प्रमेय है' यहाँ प्रमेयत्व हेतु नित्य आकाश में रहते हुये अनित्य घट में भी चला जाता है क्योंकि घर भी प्रमेय है । अध्यात्म - आत्मा का आश्रय लेकर होना । नियोग - नियुक्तोहं अनेन वाक्येन' मैं इस वेद वाक्य से नियुक्त हुआ हूँ इस प्रकार के वेद वाक्य के अर्थ को नियोग कहते हैं । प्रमाण संप्लव - बहुत से प्रमाणों का एक अर्थ में प्रवृत्त होना । विधिवाद - जगत् को एक परब्रह्म रूप ही मानना, या सर्व जगत् को एक सत्, रूप ही मानना, इसे ब्रह्मवाद, ब्रह्माद्वैत, सत्ताद्वैत भी कहते हैं । अविद्या-अद्वैतवादियों द्वारा कल्पित भेद रूप गलत धारणा को अविद्या कहते हैं । वासना - पूर्व पूर्व के संस्कार से एक रूप वस्तु को अनेक भेद रूप मानना या एक क्षण में नष्ट होने वाली क्षणिक वस्तु को कालांतर स्थायी मानना । इसे अद्वैतवादी और बौद्ध दोनों ही मानते हैं । सवृत्ति - कल्पना मात्र । सर्वथा असत्य | चार्वाक - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन भूत चतुष्टयों से आत्मा की उत्पत्ति मानने वाला जड़वादी । बौद्ध - सर्वथा प्रत्येक वस्तु को एक क्षण मात्र स्थिति वाली मानने वाले क्षणिकवादी । सांख्य - प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों को मानने वाले, सर्वथा प्रत्येक वस्तु को नित्य कूटस्थ अपरिणामी मानने वाले, आत्मा को अकर्ता, नित्य शुद्ध कहने वाले, नित्येकांतवादी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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