Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 525
________________ ४४२ ] अष्टसहस्री न होना, जैसे कमरे में पिशाच या परमाणु उपलब्ध होने योग्य नहीं हैं इनका न होना। इसे अदृश्यानुपलब्धि भी कहते हैं। प्रतिभास-झलक । पर ब्रह्म तत्त्व । ज्ञान । अर्थान्तर-भिन्न। अनर्थान्तर-अभिन्न। समवाय-अयुत सिद्ध पदार्थों में इसमें यह है इस ज्ञान को समवाय कहते हैं । यह नैयायिक वैशेषिक की मान्यता है। जैनाचार्य इसे ही तादात्म्य नाम देते हैं। संयोग-युत सिद्ध में इसमें यह है इसका नाम संयोग है। नैयायिक वैशेषिक इसे एक गुण मानते हैं। किन्तु जैनाचार्य इसे पृथक् गुण नहीं मानते हैं। अभिधान-कहना। अभिधेय-वाच्य । कहे जाने योग्यपदार्थ । अपौरुषेयवेद-जो अनादि निधन हैं, नित्य हैं, जिनको कहने वाला रचने वाला कोई नहीं है, इसीलिये जो प्रमाण हैं । ऐसा वेदांती और मीमांसक आदि मानते हैं। प्रत्यक्षकप्रमाणवादो-चार्वाक प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण मानता है अनुमान आदि को अप्रमाण कहता है। अतीन्द्रियप्रत्यक्ष-इंद्रिय और मन की अपेक्षा से रहित आवरण कर्म के अभाव से आत्मा से उत्पन्न होने वाला पूर्ण ज्ञान । अनवस्था-जिसका कहीं पर भी अवस्थान-ठहरना न हो उसे अनवस्था कहते हैं । यह एक दोष है। - लिंग-जिसके द्वारा साध्य का भान होता है, इसे हेतु भी कहते हैं। अतिप्रसंगदोष-अघटित या अनिश्चित बात का होना अतिप्रसंग है। अन्योन्याश्रय दोष-परस्पर में एक के होने से दूसरे का न होना मतलब एक के बिना दूसरे के न होने से दोनों का ही न होना। याज्ञिक-क्रियाकांडवादी यज्ञ को अधिक महत्व देने वाले, मीमांसक । सुनिश्चितासंभवद्बाधक प्रमाण-सम्यक् प्रकार से निश्चित है बाधक नहीं होना जिस प्रमाण में अर्थात् जिस प्रमाण में बाधा नहीं होना सम्यक् प्रकार से निश्चित है ।। निवृत-मन को धारण करने वाले संसारी प्राणी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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