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एकांतवाद में अनुमान भी घटित नहीं है ] प्रथम परिच्छेद
[ ४२६ समारोपव्यवच्छेदकत्वात्संवादकत्वाच्चानुमानादिवत् ।
[ एकांतवादिनां मतेऽनुमानमपि न सिद्धयति अतस्तेऽनेकांतमते बाधामुद्भावयितुं नार्हति ] . ततः स्याद्वादिनां व्याप्तिसिद्ध रस्त्यनुमानं, न पुनरेकान्तवादिनां', 'यतोनुमानसिद्धेन सर्वथैकान्तेनानेकान्तस्य बाधाकल्पना स्यात् । इत्यप्रमाणसिद्धेनापि बाधा कल्पनीयैव परैः, अन्यथा स्वमतनियमाघटनात् । तथा सति सूक्तं परमतापेक्षं विशेषणं प्रसिद्धेन न बाध्यते इति । एतेन यदुक्तं भट्टेन । नर: 'कोप्यस्ति सर्वज्ञः स तु सर्वज्ञ इत्यपि । 10साधनं11 यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत्12 ॥१॥ प्रमाण है क्योंकि वह स्वार्थ अधिगम रूप अपने और पर पदार्थ को जानने रूप फल को उत्पन्न करता है, समारोप संशयादि का व्यवच्छेदक है तथा संवादक रूप है अनुमानादि की तरह । [ एकांतवादियों के मत में अनुमान प्रमाण भी सिद्ध नहीं होता है अत: वे अनेकांत में बाधा की
कल्पना भी नहीं कर सकते हैं ] इसलिये स्याद्वादियों के यहाँ व्याप्ति की सिद्धि हो जाने से अनुमान प्रमाण व्यवस्थित है न कि एकांतवादियों के यहाँ । अर्थात् तर्क से सिद्ध व्याप्ति के अभाव में एकांतवादियों के यहाँ अनुमान प्रमाण सिद्ध नहीं होता है जिससे कि अनुमान से सिद्ध सर्वथा एकांत मत के द्वारा अनेकांत शासन में बाधा कल्पित की जा सके । अर्थात् सर्वथा एकांतवाद अनुमान से सिद्ध नहीं है, किन्तु आपको इस प्रकार से अप्रमाण सिद्ध के द्वारा भी अनेकांत शासन में बाधा की कल्पना करना ही चाहिए अन्यथा स्वमत का नियम नहीं घटगा। अतः बहुत ठीक ही कहा है कि "प्रसिद्धेन न बाध्यते" यह विशेषण परमत की अपेक्षा से है।
श्लोकार्थ-भाट्ट-कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ है और वह सर्वज्ञ आप ही हैं इत्यादि के साध्य करने में जो “सुनिश्चितासंभवबाधकत्वात्" साधन प्रयोग है वह प्रतिज्ञामात्र है अर्थात् वह कथन मात्र ही है ।।१॥
प्रतिज्ञामात्र क्यों है सो सुनिए-सिद्ध करने की इच्छा से जो अहंत आदि पदार्थ हैं वे इस प्रतिज्ञामात्र से नहीं कहे जा सकते हैं और जो इस अनिर्धारित प्रतिज्ञा (पक्ष) के द्वारा कहे जाते हैं
1 ततस्तर्कबलात् स्याद्वादिनां व्याप्तिः सिद्धयति व्याप्तेः सकाशादनुमानमस्ति । तर्कात् सिद्धाया व्याप्तेरभावे एकांतवादिनामनूमानप्रमाणं नास्ति । दि. प्र.। 2 तर्कसिद्धाया व्याप्तेरभावे एकान्तवादिनामनुमानं प्रमाणं । 3 यद्यपि सौगतयोगादीनां तर्काभावेनुमानं मूलत एव नास्ति तथापि सर्वथैकांतमनुमानं सिद्धं सर्वथैकांतं वदति । तादृशेन अनुमानसिद्धेन सर्वथैकांतेन कृत्वानेकांतस्य कुतो बाधा अपि तु न कुतोऽपि । दि. प्र.। 4 अत्राह कश्चित् इति कथितप्रकारेण अप्रमाणसिद्धनाप्यनुमानादिप्रमाणेन कृत्वा परैरेकांतवादिभिः अनेकांतमतस्य बाधा कल्पनीयव अन्यथा स्वमतनिश्चयो न घटते । स्वयं प्रमाण सिद्धो नास्ति तथापि बाधा कल्प्यते स्वमतनियमार्थं । दि. प्र. 1 5 बाधाऽकल्पना। (ब्या० प्र०) 6 स त्वमेवासि इत्यादिसाधनपरेण अथेन । (ब्या० प्र०) 7 सर्वज्ञो पुमान् भवति । (ब्या० प्र०) 8 पुमान् सर्वज्ञो भवति । (ब्या० प्र०) 9 नरः पक्षः सर्वज्ञ इति च इति पक्षद्वयसाधनमित्यर्थः। 10 सुनिश्चिता संभवबाधकप्रमाणत्वादिति। 11 पक्षद्वयवचनं । (ब्या० प्र०) 12 कुतः। (ब्या० प्र०)
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