Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 506
________________ अहंत की वीतरागता पर विचार ] प्रथम परिच्छेद [ ४२३ अनुमानात्सिद्धो बाधक इति 'चेन्नतें प्रमाणात्प्रतिबन्धसिद्धेरभ्युपगमात् । न खलु परेषां प्रत्यक्षमग्निधूमयोः क्षणभंगसद्भावयोर्वा साकल्येन व्याप्ति प्रति समर्थम्, 'अविचारकत्वात्सन्निहितविषयत्वाच्च' *। अस्मदादिप्रत्यक्षं हि साध्यसाधनयोाप्तिग्राहि परैरभ्युपगन्तव्यं', न योगिप्रत्यक्षम्, अनुमानवैयर्थ्यप्रसङ्गात्, योगिप्रत्यक्षेण देशत:10 1'कात्स्य॑तो वा निश्शेषसाध्यसाधनव्यक्ति साक्षात्करणे समारोपस्याप्यभावात् तद्व्यवच्छेदनार्थमप्यनुमानोपयोगायोगात् । तच्च निर्विकल्पकमिव सविकल्पकमपि न विचारक", "पूर्वापरपरामर्शशून्यत्वाद अनेकांतशासन का बाधक अनित्यत्व धर्म प्रत्यक्ष से प्रसिद्ध नहीं है जैसे सर्वथा नित्यत्व आदि धर्म अनेकांत शासन में बाधा नहीं दे सकते हैं। सौगत-आप के अनेकांतशासन में अनुमान से बाधा सिद्ध है। जैन - आप ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि प्रमाण के बिना अविनाभाव की सिद्धि स्वीकार नहीं की गई है अर्थात् नाम के प्रमाण बिना व्याप्ति की सिद्धि नहीं हो सकती है एवं व्याप्ति की सिद्धि न होने पर अनुमान भी उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि बौद्ध तर्क प्रमाण के बिना भी प्रत्यक्ष से व्याप्ति को सिद्धि माने तो उनके यहाँ अग्नि और धूम में अथवा “सर्वं क्षणिक सत्त्वात्" इस क्षणभंग क्षणिकत्व साध्य और सद्भाव-सत्त्वरूप साधन में साकल्य रूप से व्याप्ति को ग्रहण करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं है क्योंकि वह विचारक-निश्चय कराने वाला नहीं है एवं सन्निहित-निकटवर्ती विषय को हो ग्रहण करने वाला है ।* ___ अत: आप साध्य—साधन की व्याप्ति को ग्रहण करने वाला हम लोगों का इंद्रिय प्रत्यक्ष ही स्वीकार कीजिए; योगी प्रत्यक्ष नहीं, अन्यथा अनुमान व्यर्थ हो जावेगा। योगी प्रत्यक्ष के द्वारा एक देश रूप से अथवा सकल रूप से अखिल साध्य-साधन की व्यक्ति (विशेष) को साक्षात् करने में समारोप संशयादि का भी अभाव है । अतः उन संशयादि का व्यवच्छेद करने के लिये भी अनुमान का उपयोग नहीं होगा। हम लोगों का इंद्रिय प्रत्यक्ष सविकल्प होते हये भी निर्विकल्प के समान विचारक-व्याप्ति को ग्रहण करने वाला नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष पूर्वापर परामर्श के विचार से शून्य है और अभिलाप (शब्द) 1 तख्यिप्रमाणमन्तरा प्रतिबन्धसिद्धे (व्याप्ति सिद्ध) रनभ्युपगमायाप्तिसिद्ध यभावेनुमानायोगात् । 2 अविनाभाव । (ब्या० प्र०) 3 (तर्काख्यप्रमाणादतेपि प्रत्यक्षेणैव व्याप्तिसिद्धि: स्यादित्युक्ते आह, नेति)। 4 सौगतानाम् । क्षणिकत्वसत्त्वयोः साध्यसाधनयोः। 6 निविकल्पकत्वेन । 7 बसः । (ब्या० प्र०) 8 (ननु योगिप्रत्यक्षं न सन्निहितविषयमित्युक्ते बौद्धन स्याद्वादी प्राह)। 9 सौगतैः । (ब्या० प्र०) 10 देशयोगिनः । (ब्या० प्र०) 11 सकलयोगिनः । (ब्या० प्र०) 12 संशयादेः । 13 योगी परप्रतिपादनार्थमनमानं करोति इति चेतन, विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि असौ योगी गृहीतव्याप्तिकं वा अगृहीतव्याप्तिकं वा परं प्रतिपादयेत ? न तावद् गृहीतव्याप्तिकं तस्य प्रत्यक्षेणानुमानेन वा व्याप्तिग्रहणायोगात् नाप्य गृहीतव्याप्तिकमतिप्रसंगात । दि. प्र.। 14 अस्मदादिप्रत्यक्षम् । 15 व्याप्तिग्राहकम् । 16 (अविचारकत्वादिति भाष्योक्त हेतूमन्यप्रकारेण कथयति)। सर्वत्रेदमस्माज्जातमिदं च सर्वत्रानेन क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति परामर्शशून्यत्वान्निविकल्पकस्य सविकल्पकस्य वा प्रत्यक्षस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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