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तर्क ज्ञान प्रमाण है ] प्रथम परिच्छेद
४२५ शब्दयोजनासहितपरामर्शात्मकत्वात्कालत्रयवतिसाध्यसाधनव्यक्ति विषयत्वाच्च व्याप्ति प्रति समर्थत्वात्', प्रत्यक्षवद्वयाप्तिग्रहणपूर्वक त्वाभावादनुमानोहान्तरानपेक्ष'त्वादनवस्थाननुषङ्गात्', 10संवादकत्वेन समारोपव्यवच्छेदकत्वेन च 11प्रमाणत्वात् । तदप्रमाणत्वे न लैङ्गिक प्रमाणमिति शेषः, समारोपव्यवच्छेदाविशेषात् * । तर्कत: 1 संबन्धस्याधिगमे” समारोपविरोधात् । 19न 20हि निर्विकल्पकोधिगमोस्ति यतस्तत्र समारोपोपि22 स्यात् । किं तर्हि ?
है जैसे मठ । जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ-वहाँ धूम भी नहीं है जैसे तालाब । इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलंभ जिसमें सहकारी हैं तात्पर्य यह है कि धूम तो प्रत्यक्ष है और अग्नि अनुपलभ–परोक्ष है उन दोनों के सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला व्याप्ति ज्ञान है) ऐसा मतिज्ञान का विशेष (भेद) रूप परोक्ष तर्क ज्ञान है। उस तर्क ज्ञान के आवरण एवं वोतिराय कर्म के क्षयोपशम विशेष से ही तर्क ज्ञान उत्पन्न होता है और वह तर्क जितना कुछ भी धूम है वह सभी अग्नि से ही उत्पन्न हुआ है अथवा अग्नि के अतिरिक्त अन्य किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है इस प्रकार से शब्द योजना सहित परामर्शात्मक एवं कालत्रयवर्ती साध्य-साधन व्यक्ति-विशेष को विषय करने वाला होने से ही व्याप्ति को ग्रहण करने के प्रति समर्थ है । तथा जैसे आपका प्रत्यक्ष व्याप्ति पूर्वक नहीं होता है वैसे तर्क ज्ञान प्रत्यक्ष के समान व्याप्ति के ग्रहण पूर्वक नहीं होता है । भिन्न अनुमान एवं तर्क की अपेक्षा भी नहीं करता है अतः उसमें अनवस्था का प्रसंग भी नहीं आता है, प्रत्युत वह तर्क ज्ञान संवादक एवं समारोप का व्यवच्छेदक होने से प्रमाण रूप ही है।
यदि इस तर्क ज्ञान को प्रमाण न मानें तो अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकता है क्योंकि समारोप का व्यवच्छेदकपना दोनों में समान है* । तर्क से अविनाभाव सम्बन्ध को स्वीकार करने में समारोप का विरोध है।
1 शब्दयोजनारहित इति पा० । (ब्या० प्र०) 2 तर्कस्य। 3 व्याप्ति प्रति समर्थमित्यत्रतत् साध्ये हेत्वंतरं । (ब्या० प्र०) 4 समर्थत्वं कूतः यावता तर्कोऽपि स्वविषये व्याप्तिग्रहणमपेक्षते तच्च न प्रत्यक्षात् अनुमानादित्यादि दोषो भविष्यतीत्याशंका । (ब्या०प्र०) 5 अन्वयदृष्टान्तः । व्याप्त्यनपेक्षं प्रत्यक्ष स्वविषये यथा । ब्यावर प्रता अस्य समर्थनार्थ विचारकत्वात् कालत्रयवति साध्यसाधन व्यक्तिविषयत्वाच्चेति हेतुद्वयमुपात्तं । एतेन प्रत्यक्षवत्तर्कोप्यविचारकत्वात् संनिहितविषयत्वाच्च व्याप्तिग्रहणं प्रति न समर्थमिति वदन् प्रत्याख्यात: प्रत्यक्षेत्यादिशब्दयोजनारहित परामर्शकत्वादिति पर्यतं साधनवाक्यं देहलीदीपन्यायेन तद् हेतुद्वयसमर्थनं परं प्रतिपत्तव्यं । व्याप्तिं प्रति समर्थनत्वात् परोक्षांतर्भाविना नस्तर्केण सम्बन्धो व्यवतिष्ठतेति सम्बन्धः दि. प्र.। 6 तकस्य । 7 तर्कस्य। 8 तख्यिविकल्पज्ञानस्य प्रत्यक्षफलत्वान्न प्रमाणत्वमिति शंका । (ब्या० प्र०) 9 तर्कस्य । 10 प्रमाणांतराविरोधलक्षणेन । (ब्या० प्र०) 11 तर्कस्य। 12 प्रत्यक्षवदिति पूर्वोक्तमुदाहरणम्। 13 अनुमानं । (ब्या० प्र०) 14 समारोपव्यवच्छेदकत्वाल्लैंगिकं प्रमाणमित्यत आह । (ब्या० प्र०) 15 तर्कानुमानयोः। 16 अविनाभावस्य । (ब्या० प्र०) 17 तर्कस्य फले निर्णये। (ब्या० प्र०) 18 अधिगमो निर्विकल्प: स्यादित्याह। (ब्या० प्र०) 19 तर्कादिव निर्विकल्पकादपिनिर्णये जाते समारोपो विहन्यतामित्युक्ते आह। 20 अधिगमो हि द्वधा सविकल्पको निर्विकल्पकश्चेति तत्र सविकल्पकाधिगमे सति भवतु समारोपविरोध: स्यादिति सौगतशंका निराकुर्वतः प्राहुर्नहि इति-दि. प्र.। 21 अथवा अधिगमे समारोपविरोध इति कुतः कथ्यते निर्विकल्पकाधिगमे समारोपविरोधाभावादित्याशंकायामाहुः । दि. प्र. । 22 (समारोपविरोधस्तु दूर एवास्ताम्)।
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