Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 500
________________ सर्वज्ञ के वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं ] प्रथम परिच्छेद [ ४१७ रिच्छापूर्विका, वागादिप्रवृत्तित्वात् प्रसिद्धेच्छापूर्वकवागादिप्रवृत्तिवदिति चेन्न, हेतोरप्रयोजकत्वात् । 'यथाभूतस्य हि जाग्रतोनन्यमनसो वा वागादिप्रवृत्तिरिच्छापूर्विका प्रतिपन्ना देशान्तरे कालान्तरे च तथाभूतस्यैव तत्प्रवृत्तिरिच्छापूर्विका साधयितुं शक्या न पुनरन्यादृशो तिप्रसङ्गात् । न च सुषुप्तस्यान्यमनस्कस्य वा तत्प्रवृत्तिरिच्छापूर्वकत्वेन व्याप्तावगता', तदवगतेरसंभवात् । 'सा हि स्वसन्ताने' तावन्न 10संभवति, सुषुप्त्यादिविरोधात् । 'सुषुप्तोन्यमनस्कश्च प्रवृत्तिमिच्छापूर्विकामवगच्छति चेति 12व्याहतमेतत् । पश्चादुत्थितोवगच्छतीति चेदिदमपि 13तादृगेव । 14स्वयमसुषुप्तोनन्यमनाश्च सुषुप्तान्यमनस्कप्रवृत्तिमिच्छापूर्वकत्वेन 15व्याप्तामवगच्छतीति 1"ब्रुवाणः कथमप्रतिहतवचनपथः स्वस्थैरास्थीयते ? तदानु "विवाद में आई हुईं (स्वप्न में होने वाली) वचन आदि प्रवृत्तियाँ इच्छा पूर्वक होती हैं क्योंकि वे वचन आदि प्रवृत्तियाँ हैं संसार में प्रसिद्ध इच्छा पूर्वक वचन आदि की प्रवृत्ति के समान ।" जैन-नहीं। आपका हेतु अप्रयोजक है क्योंकि जिस प्रकार जाग्रत् मनुष्य या अनन्य मनस्कसावधान मनुष्य की वचनादि प्रवृत्तियाँ इच्छा पूर्वक मानी गई हैं। वैसे ही देशान्तर और कालान्तर में भी जीवों की वचनादि प्रवृत्तियाँ इच्छा पूर्वक सिद्ध करना शक्य है, किन्तु अन्य-सोते हुए या अन्यमनस्क जीवों के इच्छा पूर्वक सिद्ध करना शक्य नहीं है अन्यथा अति प्रसंग दोष आ सकता है। अर्थात् पाल घटिकादि धम भी अग्नि के गमक हो जावेंगे। अथवा "सन्निवेशमात्रत्वात्" हेतु पृथ्वी आदि बुद्धिमद् हेतुक हो जावेंगे। सुषुप्त अथवा अन्यमनस्क जीव की वचनादि प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वकत्व से व्याप्त नहीं है। उसके साथ उसकी व्याप्ति असम्भव है । क्योंकि वह व्याप्ति स्वसंतान-सुषुप्त संतान में सम्भव नहीं है अन्यथा सुषुप्ति आदि का विरोध हो जावेगा। कोई सोता भी अथवा अन्यमनस्क भी हो और वचन प्रवृत्ति-वचनों को इच्छा पूर्वक करे यह बात विरुद्ध है । यदि कहो कि पश्चात् उठकर जानता है तो वह ज्ञान भी उसी प्रकार विरुद्ध ही है। स्वयं जो जाग्रत् अवस्था में हैं अथवा अनन्यमनस्क-सावधान हैं ऐसे मनुष्य सुषुप्त और अन्यमनस्क (विक्षिप्त मनस्क) की प्रवृत्ति को “इच्छा पूर्वक" से व्याप्त मानते हैं ऐसा कहते हुये 1 (जनोऽप्रयोजकत्वं दर्शयति)। 2 यथास्थितस्य । (ब्या० प्र०) 3 गोपालघटिकादिधूमस्याप्यग्निगमकत्वं स्यादित्यतिप्रसंङ्गः । विषाणिनी वाग्, गोशब्दवाच्यत्वादित्यतिप्रसगे टिप्पणान्त रमिदम् । 4 सुषुप्तस्यान्यमनसो वा। (ब्या० प्र०) 5 संनिवेशमात्रात् क्षित्यादेर्बुद्धिमद्हेतुकत्वप्रसंगात् । (ब्या० प्र) 6 क्वचि व्यक्ती । (ब्या० प्र०) 7 (इच्छापूर्वकत्वेन सह व्याप्तत्वावगतिः)। 8 सुषुप्तसन्ताने। 9 आह सौगतः । सा इच्छा स्वसंताने सुषुप्तस्य सुषुप्तत्वलक्षणे नोत्पद्यते चेत्तदा सुषुप्तादि विरुद्धयते एवं सति किमायातं । स्याद्वाद्याह । हे सौगत ! सुषुप्तः अन्यमना: इच्छापूर्विकां प्रवृत्ति जानाति इति वचो विरुद्धं अथ पश्चादुत्थितः सन् जानाति । इदमपि विरुद्धं । दि. प्र.। 10 अन्यथा। (ब्या० प्र०) 11 विरोधमेवाह। 12 विरुद्धं । (ब्या० प्र०) 13 व्याहतमेव । 14 (व्याहति दर्शयति)। 15 प्रत्यक्षतया । (ब्या० प्र०) 16 नैयायिकः। 17 आद्रीयते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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