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४१४ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ६. [ इच्छामंतरेणापि भगवतः बाच: निर्दोषा संति ] तत्रष्टं मतं 'शासनमुपचर्यते', 'निराकूतवाचोपि क्वचिदविप्रतिषेधात्' ।नपुनरिच्छा विषयीकृतमिष्ट, प्रक्षीणमोहे भगवति मोहपर्यायात्मिकायास्तदिच्छायाः संभवाभावात् । तथा हि । नेच्छा सर्वविदः शासनप्रकाशननिमित्तं, प्रणष्टमोहत्वात् । यस्येच्छा शासनप्रकाशननिमित्तं, न स प्रणष्टमोहो यथा किश्चिज्ज्ञः । प्रणष्ट मोहश्च सर्ववित्प्रमाणत: साधितस्तस्मान्न तस्येच्छा शासनप्रकाशननिमित्तम् । इति केवलव्यतिरेकी हेतुनिराकुतवाचं साधयति, अव्यभिचारात् । 11न सर्वविदिच्छामन्तरेण वक्ति, वक्तृत्वादस्मदादिवदित्यनेन निराकूतवाचो विप्रतिषेध इति चेन्नायं13 नियमोस्ति ।
[ इच्छा के बिना भी भगवान् के वचन निर्दोष हैं ] उन भगवान में 'इष्ट-मत-शासन' अर्थात् आगम का उपचार किया जाता है। क्योंकि निरभिप्राय वचनों का भी कहीं पर अविरोध देखा जाता है । अर्थात् अभिप्रायरहित वचन भी कहीं-कहीं विरोधरहित पाये जाते हैं।
___इच्छा को विषय करने वाला "इष्ट" शब्द है ऐसा नहीं कहना क्योंकि प्रक्षीण मोह-मोहनीय कर्मरहित भगवान् में मोह की पर्यायस्वरूप इच्छा संभव नहीं है। तथाहि "सर्वज्ञ को अपना मत प्रकाशन करने की इच्छा नहीं है क्योंकि उनके मोहनीय कर्म का नाश हो गया है। जिसको शासन प्रकाशन की इच्छा है वह मोहर हित नहीं है जैसे कि किचिज्ज्ञ (अल्पज्ञ) पुरुष, और सर्वज्ञ मोहरहित हैं यह बात प्रमाण से सिद्ध कर दी गई है। इसीलिये सर्वज्ञ को शासन प्रकाशन की इच्छा नहीं है।" इस प्रकार केवलव्यतिरेकी हेतु अभिप्रायरहित वचन को सिद्ध करता है क्योंकि इस हेतु में व्यभिचार दोष नहीं आता है।
भावार्थ- 'इषु' धातु इच्छा अर्थ में है और यहां भगवान् के शासन को 'इष्ट' शब्द से कहा गया है इसलिये यह प्रश्न स्वाभाविक है कि भगवान के वचन इच्छापूर्वक ही होते होंगे क्योंकि उन्हें अपने मत को प्रकाशित करने की विश्व में सर्वतोन्मुखी फैलाने की इच्छा अवश्य होगी तभी तो उनका ''मत' इष्ट शब्द से कहा गया है । इस पर जैनाचार्यों ने समझाया है कि सर्वज्ञ भगवान् के वचन इच्छापूर्वक नहीं होते हैं क्योंकि उनके मोहनीय कर्म का नाश हो गया है।
1 भगवति। 2 भगवानागमं कथयति परन्तु इच्छामन्तरेण कथयति । इष्टमिच्छाविषयीकृतमिति भगवत्युपचर्यते । अत्राह नैयायिकः।-भो स्याद्वादिन इच्छां विना वचनप्रवृत्तिर्न भवेत् । तदुपरि जैन: प्राह ।-भो नैयायिक निराकृतवाचोपि (निरभिप्रायायाः वाचोपि) क्वचिदविप्रतिषेधात (इच्छां विनापि वचनस्योत्पत्तेर्वक्ष्यमाणत्वात)। 3 आगमः। 4 मित्युपचर्यते इति पा.। भगवति इच्छाया: वचनलक्षण प्रयोजनसद्भावात् इष्टमिति व्यवहारस्य निमितत्त्वात् अमुख्यत्वात् चोपचारतः प्रयोजनं प्रवर्तनं । (ब्या० प्र०) 5 निरभिप्रायाः । (ब्या० प्र०) 6 सुषप्तपुरुषादी। 7 अनिवारणात । (ब्या० प्र०) 8 शासनप्रकाशनेच्छायाः। 9 दोषावरणयोहानिरित्यादिना। 10 (निरभिप्रायवचनम्)। 11 नैयायिक: प्राह। 12 विरोधः । (ब्या० प्र०) 13 जैन आह ।
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