Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 490
________________ अर्हत की वीतरगाता पर विचार । प्रथम परिच्छेद [ ४०७ [ बौद्धः शंकते यत् वीतरागोऽपि सरागवत् चेष्टां कर्तुं शक्नोति शरीरित्वात् जैनाचार्या, अस्य समाधानं कुर्वते ] ये त्वाहुः-'सतोपि यथार्थदशिनो वीतरागस्येदन्तया निश्चेतुमशक्तेस्तत्कार्यस्य व्यापारादेस्तद्व्यभिचारादवीतरागेपि' दर्शनात्, सरागाणामपि वीतरागवच्चेष्टमानानामनिवारणान्न कस्यचित् स त्वमेवाप्त इति निर्णयः संभवति' इति तेषामपि, विचित्राभिसंबन्ध तया' व्यापारव्याहारादिसार्येण ववचिदप्यतिशयानिर्णये 10कैमर्थक्याद्विशेषेष्टि:11, 12ज्ञानवतोपि विसंवादात्, क्व पुनराश्वास14 1लभेमहि ? * न हि ज्ञानवतो वीतरागात्पुरुषाद्विसंवादः 16क्व[ बौद्ध शंका करता है कि वीतराग भी सरागवत् चेष्टा कर सकते हैं क्योंकि वे शरीर धारी हैं इस पर जैनाचार्यों का समाधान ] बौद्ध-यथार्थदर्शी वीतराग के होते हुये भी "ये ही वीतराग हैं" इस प्रकार से निश्चय करना अशक्य है क्योंकि वीतराग के कार्य व्यापारादि अवीतराग में भी देखे जाते हैं अतः व्यभिचार दोष आता है । स राग भी वीतरागवत् चेष्टा कर सकते हैं उनका निवारण कोई भी नहीं कर सकता है अतः किसी भी जीव में वे आप ही आप्त हैं' इस प्रकार से निर्णय नहीं हो सकता है। अर्थात् सराग जीवों में भी वीतराग के समान चष्टायें होने पर भी वीतराग जीवों में वचन आदि का अतिशय विशेष देखा जाता है वह सर्वज्ञ आप्त आप ही हैं ऐसा जैनाचार्यों के कहने पर बौद्ध कहता है कि मानसिक अभिप्रायों की विचित्रता से शारीरिक और वाचनिक क्रियाओं में संकर हो जाता है अतः किसी भी पुरुष में वचनादिकों के अतिशय का निर्णय करना असंभव है। इसी बात को आगे स्पष्ट कर रहे हैं। जैन-विचित्र अभिप्राय के होने से एवं व्यापार व्यवहारादि की संकरता से कहीं पर आदि के समान सगत में भी अतिशय का निर्णय न होने पर किस प्रकार से अर्थात किस अर्थ का आश्रय लेकर के विशेष आप्तपने की इष्ट सिद्धि होगी क्योंकि केवल वीतरागी में ही नहीं बल्कि ज्ञानवान में भी विसंवाद पाया जाता है पुनः हम लोग कहाँ पर विश्वास करेंगे ? * अर्थात् अहंत भगवान् आप्त हैं क्योंकि वे संवादक हैं इस पक्ष में हम लोगों को कहीं भी विश्वास नहीं हो सकेगा। ज्ञानवान वीतराग पुरुष से कहीं पर किसी विषय में विसंवाद संभव नहीं है अन्यथा सुगतादि 1 सौगताः । 2 युक्तिशास्त्राविरोधित्वात् कस्य साधनस्यान्यथानुपपत्तिनिश्चायकं विचित्रेत्यादिभाष्यवाक्यमवतारयति । (ब्या० प्र०) 3 अयमेवेति प्रकारेण । 4 अवीतरागेपि दर्शनादेव व्यभिचारः। 5 सरागाणामपि वीतरागवच्चेष्टा. सद्भावेऽपि व्याहारादिकार्यातिशयदर्शनात् स त्वमेवाप्त इति निर्णयः संभवत्येवेति वदंतं जैन प्रति सौगतेन कथ्यमानस्य विचित्राभिसंधितया व्यापारव्याहारादिसांकर्येण क्वचिदप्यतिशया निर्णय इति वचनोद्घाटनपुरस्सरं तत्र दूषणमाहुः विचित्रेति । दि.प्र.। 6 विचित्राभिसन्धितया इति पाठान्तरम् । 7 अभिप्रायतया। हेतुरयं, तृतीयान्तस्यापि हेतुत्वात् । 8 कपिलादाविव सुगतेपि । 9 सरागाणां वीतरागवच्चेष्टमानानां मायाविनामपि नानापरिणामत्वेन गमनवचनादिसङ्करत्वेन क्वचिदपि पूरुषे माहात्म्यानिश्चये सति विशेषाभिमत (सुगत) स्यानर्थक्यं घटते । एवं सति ज्ञानिनोपि असत्यत्वं घटते। 10 किमर्थमाश्रित्येति कि शब्दः आक्षेपे । (ब्या० प्र०) 11 सुगतस्य। 12 न केवलं वीतरागात् । (ब्या० प्र०) 13 अर्हन् आप्तः संवादकत्वादित्यस्मिन् पक्षे । (ब्या० प्र०) 14 विश्वासम् । 15 न क्वापि । (ब्या० प्र०) 16 विषये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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