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अर्हत की वीतरागता पर विचार ] प्रथम परिच्छेद
[ ४.६ स्यात्सर्वज्ञश्च, विरोधाभावात्', विज्ञानप्रकर्षे शरीराद्यपकर्षादर्शनादिति चेत्तत एव सर्वज्ञस्य विचित्राभिप्रायतानिश्चयोपि मा भूत्, तत्रापि प्रोक्तहेतोः सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वाविशेषात् । 'सोयं विचित्रव्यापारादिकार्यदर्शनात्सर्वस्य विचित्राभिसन्धितां निश्चिनोति, न पुनः कस्यचिद्वचनादिकार्यातिशयनिश्चयात् सर्वज्ञत्वाद्यतिशयमिति कथमनुन्मत्तः ? 1°कैमर्थक्याच्चा स्य12 सन्तानान्तरस्वसन्तानक्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्या देविशेषस्येष्टि: ? विप्रकृष्टस्वभावत्वाविशेषात्, 16वेद्यवेदकाकाररहितस्य 'वेदनाद्वैतस्य वा विशेषस्या
बौद्ध-हमारे बुद्ध में इस हेतु से असर्वज्ञता की सिद्धि नहीं है क्योंकि यह हेतु बुद्ध में संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्तिक है । शरीरी भी होवें और सर्वज्ञ भी होवें इस प्रकार से इसमें विरोध का अभाव है क्योंकि विज्ञान का प्रकर्ष होने पर शरीरादिक का अपकर्ष नहीं देखा जाता है।
जैन-इसी हेतु से सर्वज्ञ के विचित्राभिप्रायता का निश्चय भी मत होवे क्योंकि सर्वज्ञ में भी यह हेतु संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति वाला है।
आप बौद्ध विचित्र व्यापारादि कार्यों के देखने से सभी के विचित्र अभिप्रायपने का निश्चय तो कर लेते हैं, किन्तु किसी जीव में वचनादि कार्यों के अतिशय का निश्चय देखकर भी सर्वज्ञत्व आदि अतिशय को नहीं मानते हुये आप उन्मत्त कैसे नहीं हो सकते हैं अर्थात् आप बुद्धिमान् कैसे कहे जा सकते हैं ? 'शारीरिक और वाचनिक कार्यों में संवादकत्व आदि संकरता के देखने से आप्त निश्चित नहीं हैं ऐसा हम नहीं कह सकते हैं किन्तु आपके सर्वज्ञ का स्वभाव विप्रकृष्ट है, प्रत्यक्ष गम्य नहीं है। इसलिए अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं हैं ऐसा हम कह सकते हैं।' इस प्रकार बौद्ध के कहे जाने पर जैनाचार्य कहते हैं कि
आप सौगत संतानांतर ( भिन्न-२ यज्ञदत्त, देवदत्त की संतान) और अपने संतान में क्षणक्षयी शक्ति का और स्वर्ग को प्राप्त कराने वाली शक्ति आदि की विशेषता का निश्चय भी कि करेंगे ? क्योंकि दोनों में विप्रकृष्ट-दूरवर्ती स्वभाव समान ही है एवं वेद्य (ज्ञेय) वेदकाकार (ज्ञानाकार) से रहित संवेदनाद्वैत में विशेषता का निश्चय भी किस प्रकार से होगा? अथवा जो विशेष प्रमाणभूत, जगद्धितैषी, शास्ता, रक्षक है और शोभन अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं अथवा संपूर्ण अवस्था को प्राप्त हैं या पुनरावृत्ति (पुनर्जन्म) के न होने से सुष्ठु-सुगति को प्राप्त हैं ऐसे सुगत है। इस प्रकार इन
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1 असर्वज्ञनिश्चयो न शरीरी भूत्वापि सर्वज्ञोऽस्ति । (ब्या० प्र०) 2 विरोधाभावे हेतुमाह। 3 इंद्रिय । (ब्या० प्र०) 4 जैनः । 5 सर्वस्य इति पा. । (ब्या० प्र०) 6 शरीरित्वादिहेतोविचित्राभिप्रायतां न निश्चिन्मः किन्तु विचित्रव्यापारादिदर्शनादित्यत आह। (ब्या०प्र०) 7 सौगतः। 8 न निश्चिनोति । (ब्या० प्र०) 9 बुद्धिमान् । 10 व्यापारव्याहारादिकार्यसंवादकत्वादिसांकर्य दर्शनादाप्तत्वं न निश्चीयते इति नाच्यते किंतु विप्रकृष्टस्वभावत्वादित्यूक्ते । (ब्या० प्र०) 11 किं लिङ्गमाश्रित्येत्यर्थः। 12 सौगतस्य। 13 सर्व क्षणिक सत्त्वात् । (ब्या० प्र०) 14 सन्तानान्तरो देवदत्तयज्ञदत्तसन्तानः । स्वस्य आत्मनः सन्तानश्च । तयोः क्षणक्षयिणी या शक्तिः स्वर्गप्रापणस्य च या शक्तिस्तदादेविशेषस्येष्टिनिश्चिनिरथिका भवति । कुतः ? दूरतरस्वभावत्वात्, उभयत्र सर्वज्ञत्वाद्यतिशये उक्तविशेषस्येष्टी च विशेषाभावात् । 15 द्वैतवादिनं बौद्धं प्रति । (ब्या० प्र०) 16 ज्ञानाद्वैतवादिन प्रति जैनस्योक्तिः । 17 संवेदनाद्वैतस्य इति पा. । (ब्या० प्र०) 18 कैमर्थक्यादिष्टिरिति पूर्वेणान्वयः ।
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