Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 491
________________ ४०८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ६ चित्संभवति 'सुगतादावप्यनाश्वासप्रसङ्गात् तस्य कपिलादिभ्यो विशेषेष्टेरानर्थक्यप्रसङ्गात् । न च व्यापारव्याहाराकारविशेषाणां तत्र साङ्कर्य सिध्यति, विचित्राभिसन्धितानुपपत्ते: तस्याः पृथग्जने रागादिमत्यज्ञे प्रसिद्धेः प्रक्षीणदोषे भगवति निवृत्तेः, अस्य यथार्थप्रतिपादनाभिप्रायतानिश्चयात् । 'कुतश्चायं 10सर्वस्य विचित्राभिप्रायतामदृश्यां व्यापारादिसाङ्कर्यहेतुं निश्चिनुयात् ? "शरीरित्वादेर्हेतोः 12स्वात्मनीवेति चेत् तत एव सुगतस्यासर्वज्ञत्वनिश्चयोस्तु । "तत्रास्य15 1"हेतोः सन्दिग्धविपक्ष'व्यावृत्तिकत्वान्न तन्निश्चयः । "शरीरी च में भी अविश्वास का प्रसंग आ जावेगा और सुगत को कपिल आदि से विशेष मानने में अनर्थकता का प्रसंग भी आ जावेगा, किन्तु व्यापार, व्याहार, आकारादि विशेषों का .भगवान् में सांकर्य सिद्ध नहीं होता है । अर्थात् सराग वीतरागवत् चेष्टा करें और वीतराग सरागवत् चेष्टा करें इसे संकर कहते हैं । यह संकर दोष भगवान् में संभव नहीं है क्योंकि उनके विचित्र अभिप्राय नहीं पाया जाता है । अर्थात् सराग यथार्थ अभिप्राय वाले हैं और वीतराग अयथार्थ विचार वाले हैं यह बात गलत है। विचित्र अभिप्रायपना तो रागादिमान् अज्ञानी पृथग्जन-साधारण मनुष्य में ही प्रसिद्ध हैं। सर्वदोष रहित वीतराग भगवान् में उसका अभाव है क्योंकि सर्वज्ञ भगवान् यथार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय वाले हैं ऐसा निश्चय पाया जाता है। तथा आप सौगत सभी के अदृश्य-रूप न दिखने वाले विचित्र अभिप्रायों को व्यापारादि सांकर्य हेतक कैसे निश्चित करेंगे? अर्थात अभिप्राय तो आंतरिक हैं अतः उनका बाह्य व्यापारादि कार्यों से निर्णय नहीं किया जा सकता है ? सौगत'शरीरित्वादि' हेतु से स्वात्मा के समान हो विचित्राभिप्रायता निश्चित है अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग में विचित्राभिप्राय है क्योंकि वे शरीर धारी हैं हम लोगों के समान । जैन-इसी 'शरीरित्व' हेतु से ही बुद्ध देव के असर्वज्ञपने का निश्चय हो जावे क्या बाधा है ? अर्थात् आपके बुद्ध भी शरीरवान् हैं अतः वे भी असर्वज्ञ हैं ऐसा हम कह सकते हैं ? 1 अन्यथा (ज्ञानवतोपि विसंवादः संभवति चेत्) । 2 अविश्वास (ब्या० प्र०) 3 सुगतस्य । 4 ज्ञानवति । 5 सरागो वीतरागवद्वीतरागश्च सरागवच्चेष्टते इति सार्यम् । 6 सरागवीतरागाभिप्रायः यथार्थायथार्थप्रतिपादनाभिप्रायः । (ब्या० प्र०) 7 (विचित्राभिसन्धितायाः)। 8 (विचित्राभिसन्धितायाः)। 9 सौगतः। 10 सर्वज्ञस्यासर्वज्ञस्य वा। 11 सौगतः प्राह ।-सर्वज्ञे वीतरागे विचित्राभिप्रायोस्ति, शरीरित्वादस्मदादिवत् । 12 सौगतोऽनुमान रचयति । भगवान् पक्षः विचित्राभिप्रायवान् भवतीति साध्यो धर्मः । शरीरित्वादेः । यः शरीरी स विचित्राभिप्रायवान् यथास्मदादिः । दि. प्र.। 13 स्याद्वादी। 14 तत्र सुगते शरीरित्वादिहेतोरस्य विपक्षात् । व्यावृत्तिकत्वं संदिग्धं व्यावर्तते न व्यावर्तते न चेति संदेहः । यः विचित्राभिप्रायवान् नास्ति स शरीरी नास्ति । इति विपक्षलक्षणं । तत्र संदेहः कथं । कश्चिद्विचित्राभिप्राय रहितोऽपि शरीरीति सौगतो वदति अतस्तस्य असर्वज्ञत्वस्य निश्चयो न । शरीरी च भवति सर्वज्ञश्च भवति । अत्र विरोधो नास्ति कस्मात् ? विज्ञानोत्कृष्टत्वे पुरुषे वचनादिविनाशानुपलभात् । दि. प्र.। 15 सुगते। 16 शरीरित्वादेरित्यस्य। 17 विचित्राभिप्राय रहितत्व । (ब्या० प्र०) 18 शरीरी चास्तु सर्वज्ञश्चेति सन्दिग्धा विपक्षादयावृत्तिर्यस्य हेतोः सः । तत्त्वात् । 19 संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वं कथमित्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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