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सांख्य द्वारा मान्य संसार-कारण खण्डन ।
प्रथम परिच्छेद
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निवृत्तावप्यनिवर्तमानं देवगृहादि न तन्मात्रकारणम् । मिथ्याज्ञाननिवृत्तावप्यनिवर्तमानश्च संसारः । तस्मान्न मिथ्याज्ञानमात्रकारणक इति । अत्र न हेतुरसिद्धः, सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती मिथ्याज्ञाननिवृत्तावपि 'दोषानिवृत्तौ संसारानिवृत्तेः स्वयमभिधानात् । दोषाणां संसारकारणत्वावेदकागमस्वीकरणाच्च तन्मात्र संसारकारणतत्त्वं न्यायागमविरुद्धं सिद्धम् । तदेवमन्येषां न्यायागम विरुद्धभाषित्वादहन्नेव युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् सर्वज्ञो वीतरागश्च निश्चीयते । ततः स एव सकलशास्त्रादौ प्रेक्षावतां संस्तुत्यः । .
___ सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति के हो जाने पर तथा मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर भी दोष (राग, द्वेषादि) की निवृत्ति न होने से संसार का अभाव नहीं होता है ऐसा सांख्यों ने स्वयं माना है। अर्थात् जैन सिद्धांत में भी सम्यक्त्व प्रगट होते ही चौथे गुणस्थान में मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान का अभाव हो गया है फिर भी संसार का अभाव नहीं हुआ है । सम्यक्त्व छूटने के बाद यह जीव अर्द्धपुद्गल परावर्तन तक संसार में भ्रमण कर सकता है और सम्यक्त्व सहित भी ६६ सागरोपम से कुछ अधिक काल तक संसार में रह सकता है । अतएव मिथ्याज्ञान मात्र ही संसार का कारण नहीं है।
पुन: अन्य लोगों ने भी दोषों को संसार का कारण माना है इस बात को आगम भी स्वीकार करता है । इसलिये मिथ्याज्ञान मात्र से ही संसार होता है यह कथन न्याय एवं आगम से विरुद्ध है यह बात सिद्ध हो जाती है और इस प्रकार से अन्य सभी के आप्त भगवान न्यायागम से विरुद्ध भाषी हैं अतः अहंत ही युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं एवं सर्वज्ञ और वीतराग हैं ऐसा निश्चित हो जाता है। अतः वे ही सकल शास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र की आदि-प्रारम्भ में बुद्धिमानों के द्वारा स्तवन करने योग्य हैं यह बात सिद्ध हो जाती है।
1 तन्निवृत्तावपि संसारानिवृत्तेरिति । 2 दोषाः रागद्वेषाः। 3 सांख्यैः। 4 सौगतः। (ब्या० प्र०) 5 सकलं तत्वार्थादि । 6 गृद्धपिच्छाचार्यादीमां। उमास्वामिप्रसिद्धापरनाम । (ब्या० प्र०)
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