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संसारतत्त्व के न मानने वालों का निराकरण ] प्रथम परिच्छेद
[ ४०३ [ अन्यः कल्पितं संसारतत्त्वमपि सर्वथा विरुद्धमेव ] तथा संसारतत्त्वं चान्येषां न्यायागमविरुद्धम् । तथा हि । नास्ति नित्यत्वाद्येकान्ते 'कस्यचित्संसारः, विक्रियानुपलब्धेः । इति न्यायविरोधः। समर्थयिष्यते तदागमविरोधश्च, 'स्वयं पुरुषस्य संसाराभाववचनाद्, 'गुणानां संसारोपपत्तेः परेषां संवृत्त्या' संसारव्यवस्थितेः ।
तात्पर्यवृत्ति-क्रोधाद्यास्रवाणां संबंधि कालुष्यरूपमशुचित्वं जडत्वरूपं विपरीतभावं व्याकुलत्वलक्षणं दुःखकारणत्वं च ज्ञात्वा तथैव निजात्मन: संबंधि निर्मलात्मानुभूतिरूपशुचित्वं सहजशुद्धाखंडकेवलज्ञानरूपं ज्ञातृत्वमनाकुलत्वलक्षणानंतसुखत्वं च ज्ञात्वा ततश्च स्वसंवेदनज्ञानांतरं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रकाग्रयपरिणतिरूपे परमसामायिके स्थित्वा क्रोधाद्यास्रवाणां निवृत्ति करोति जीवः । इति ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोधो भवति नास्ति सांख्यादिमत प्रवेशः । किं च यच्चात्मास्रवयोः सम्बन्धि भेदज्ञानं तद्रागाद्यास्रवेभ्यो निवृत्तं न वेति, निवृत्तं चेतहि तस्य भेदज्ञानस्य मध्ये पानकवदभेदनयेन वीतरागचारित्रं वीतरागसम्यक्त्वं च लभ्यत इति सम्यग्ज्ञानादेव बंधनिषेधसिद्धिः। यदि रागादिभ्यो निवृत्तं न भवति तदा तत्सम्यन्भेदज्ञानमेव न भवतीति भावार्थः ।
अर्थ-क्रोधादि आस्रवों के कलुषता रूप अशुचिपने को, जड़ता रूप विपरीतपने को, और व्याकुलता लक्षण दुःख के कारणपने को जानकर एवं अपने आत्मा के निर्मल आत्मानुभूति रूप शुचिपने को सहज शुद्ध अखण्ड केवलज्ञान रूप ज्ञातापन को और अनाकुलता लक्षण अनंतसुख रूप स्वभाव को जानकर उसके द्वारा स्वसंवेदन ज्ञान को प्राप्त होने के अनन्तर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्
ता रूप परमसामायिक में स्थित होकर यह जीव क्रोधादिक आस्रवों की निवत्ति करता है इस प्रकार ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध सिद्ध हो जाता है। यहाँ सांख्य मत जैसा ज्ञानमात्र से बंध का निरोध नहीं माना गया है। (किन्तु वैराग्यपूर्ण ज्ञान को ज्ञान कहा गया है और उससे बंध का निरोध होता है ।) किं च हम तुमसे पूछते हैं कि आत्मा और आस्रव संबंधी जो भेद ज्ञान है वह रागादि आश्रवों से निवृत्त है या नहीं? यदि कहो कि निवृत्त है तब तो उस भेदज्ञान में पानक (पीने की वस्तु ठंडाई इत्यादि) के समान अभेदनय से वीतराग चारित्र भी और वीतराग सम्यक्त्व भी है, इस प्रकार सम्यग्ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध हो जाता है, और यदि वह भेद ज्ञान रागादि से निवृत्त नहीं है तो वह सम्यग्भेदज्ञान ही नहीं है।
[ अन्यों के द्वारा मान्य संसार तत्त्व सर्वथा विरुद्ध ही हैं ] उसी प्रकार अन्यमतावलंबियों का संसारतत्त्व भी न्यायागम से विरुद्ध है। तथाहि "नित्य
1 आत्मनः । (ब्या० प्र०) 2 (येषां मते नित्य एवात्मा तेषां मते आत्मनो भवान्तरावाप्तिरूपः संसारो न संभवति आत्मनो नित्यत्वेन विकारानुपपतेः)। 3 (अग्रेऽस्माभिः)। 4 न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः, एकमेवाद्वितीयं ब्रह्मत्यादि च वद्भिः। 5 सत्त्वरजस्तमसाम् । प्रकृतिविकृत्यहङ्कारादीनाम् । 6 सांख्यानाम् । सौगतानामिति टिप्पणान्तरम् । 7 कल्पनया।
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