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अष्टसहस्री
[ कारिका ६तत्त्वज्ञानादशेषाज्ञाननिवृत्ति'फलादन्यस्य परमोपेक्षालक्षणस्वभावस्य समुच्छिन्नक्रिया4ऽप्रतिपातिपरमशुक्लध्यानस्य तपोतिशयस्य समाधिव्यपदेशकरणातू । तथा चारित्रसहितं तत्त्वज्ञानमन्तर्भूततत्वार्थश्रद्धानं परनिःश्रेयसमनिच्छतामपि कपिलादीनामग्रे' व्यवस्थितम् । ततो न्यायविरुद्ध सर्वथैकान्तवादिनां ज्ञानमेव मोक्षकारणतत्त्वम् । स्वागमविरुद्धं च, सर्वेषामागमे प्रव्रज्याद्यनुष्ठानस्य सकलदोषोपरमस्य च बाह्यस्याभ्यन्तरस्य च चारित्रस्य मोक्षकारणत्वश्रवणात् ।
सांख्य-योगियों का ज्ञान तत्त्वोपदेश के समय शिष्य जनों को प्रतिबोधन करने के लिये प्रवृत्त होता हुआ अस्थिर और असमाधि रूप है । पश्चात् वही ज्ञान सकल व्यापार से निवृत्त (रहित) होकर स्थिर समाधि नाम को प्राप्त कर लेता है।
जैन-तब तो इस कथन से समाधि और चारित्र इनमें नाम मात्र का ही भेद रह जाता है अर्थ से भेद कुछ भी नहीं दीखता है । अशेष अज्ञान की निवृत्ति है फल जिसका ऐसे तत्त्वज्ञान से भिन्न परमोपेक्षा लक्षण स्वभाव वाला समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति नामक परम शुक्लध्यान जो कि तपश्चर्या का अतिशय रूप है उसी को तुमने समाधि नाम दिया है। तथा जो चारित्र सहित है और तत्त्वाथ श्रद्धान जिसमें अंतर्गभित है ऐसा तत्त्वज्ञान ही परनिःश्रेयस (मोक्ष) का कारण है इस प्रकार को कपिल आदि स्वीकार नहीं करते हैं फिर भी उनके सम्मुख सम्यग्दर्शन और चारित्र व्यवस्थित हो ही जाते हैं। : इसलिये ज्ञान ही मोक्ष के लिये कारणभूत तत्त्व है इस प्रकार सर्वथा एकांतवादियों का कथन न्याय से विरुद्ध है और उनके आगम से भी विरुद्ध है क्योंकि सभी के आगम में दीक्षा आदि बाह्य चारित्र के अनुष्ठान और सकल दोषों की उपरति रूप आभ्यंतर चारित्र मोक्ष के कारण हैं ऐसा सुना जाता है।
विशेषार्थ-जैन सिद्धांत में तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है, जिसे अनंतज्ञान अथवा क्षायिकज्ञान भी कहते हैं। यह ज्ञान की पूर्णावस्था है। यहाँ नव केवललब्धि के प्रकट हो जाने से 'परमात्मा' यह संज्ञा आ जाती है। यहाँ पर शील के १८ हजार भेद पूर्ण हो जाते हैं, किन्तु ८४ लाख उत्तरगुणों की पूर्णता १४ वें गुणस्थान के अंत में होती है और रत्नत्रय की पूर्णता
भी वहीं पर होती है ऐसा श्लोकवातिक में स्पष्ट किया है। . समयसार ग्रन्थ में ज्ञान मात्र से बंध का निरोध माना है वहाँ पर भी श्री जयसेन स्वामी ने टीका में स्पष्ट किया है यथा
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणंत्ति य तदो नियत्ति कुणदि जीवो ।।७७।।
1बसः । (ब्या०प्र०) 2 भिन्नस्य । 3 नष्ट व्यापाराविनाशीति स्वरूपं तत्शक्लध्यानस्य । 4 व्यापार । अविनाशि। (ब्या० प्र०) 5 निःश्रेयसकारणम इति पा.। (ब्या० प्र०) 6 कपिलादीनां सम्मुखम् । 7 अनशनादितपः । (ब्या० प्र०) 8 बाह्यचारित्ररूपस्य। 9 आभ्यन्तरचारित्ररूपस्य ।
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