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अष्टसहस्री
[ कारिका ६
[सांख्यादिमान्य संसारकारणतत्त्वमपि प्रत्यक्षादि प्रमाणैर्वाध्यते 1 तथा संसारकारणतत्त्वं चान्येषां न्यायागमविरुद्धम् ।
[ सांख्याभिमतसंसारकारणनिराकरणं । तद्धि मिथ्याज्ञानमात्रं तैरुररीकृतम् । न च तत्कारण: संसारः, तन्निवृत्तावपि संसारानिवृत्तेः । यन्निवृत्तावपि यन्न निवर्त्तते न तत्तन्मात्रकारणम् । यथा 'तक्षादि
क्षणिक आदि एकांत में किसी भी जीव को संसार नहीं है क्योंकि विक्रिया-नर नारकादि पर्याय विशेष रूप क्रिया की उपलब्धि होना संभव नहीं है । अर्थात जिनके मत में आत्मा सर्वथा नित्य ही है उनके मत में आत्मा के भवांतर की प्राप्ति रूप संसार संभव नहीं है। आत्मा को नित्य रूप मानने से विकार (परिणमन) हो नहीं सकता है। इस प्रकार यहाँ न्याय से विरोध आता है और आगम से विरोध का वर्णन आगे करेंगे।
किन्हीं ने (सांख्यों ने) स्वयं ही पुरुष के संसार का अभाव माना है पुन: उनके यहाँ गुणों (सत्त्व, रज, तम) को हो संसार सिद्ध हो जाता है तथा बौद्धों ने तो संवृत्ति (कल्पना मात्र) से ही संसार को माना है। इन सबका माना हुआ संसार तत्त्व भी ठीक तरह से सिद्ध नहीं होता है अतः जैनों के द्वारा मान्य पंचपरावर्तन रूप या भवांतर रूप संसार तत्त्व ही ठीक सिद्ध होता है।
[ अन्यों के द्वारा मान्य संसार कारण भी विरुद्ध है] इस प्रकार अन्य जनों के द्वारा मान्य संसार कारण तत्त्व भी न्याय आगम से विरुद्ध हैं । अर्थात् अद्वैतवादी संसार को काल्पनिक ही मानते हैं तो उनके यहाँ संसार के कारण भी काल्पनिक-असत्य ही रहेंगे। सांख्य ने मिथ्याज्ञान मात्र से ही संसार को माना है इसका खंडन भी आगे विद्यानंद आचार्य स्वयं कर रहे हैं। तात्पर्य यही है कि सभी अन्य मतावलबियों के द्वारा कल्पित जितने भी संसार और मोक्ष के कारण हैं वे सभी संसार के ही कारण हैं ऐसा समझना चाहिये। हमारे यहाँ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच कारण माने गये हैं। अन्य सभी के सभी कारण इन्हीं में शामिल हो जाते हैं।
[ सांख्य के द्वारा मान्य संसार के कारण का खण्डन 1 सांख्यों ने मिथ्याज्ञान मात्र को ही संसार का कारण माना है, किन्तु उतने मात्र कारण वाला संसार नहीं है क्योंकि मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर भी संसार का अभाव नहीं होता है। जिसकी निवत्ति हो जाने पर भी जो निवृत्त नहीं होता है वह उस मात्र कारण वाला नहीं है जैसे तक्षादि (बढ़ईसुतार) के निवृत्त हो जाने पर भी देवगृहादिक का अभाव नहीं होता है इसलिये वे उस मात्र कारणक नहीं है । तथैव मिथ्याज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर भी संसार का अभाव नहीं होता है अतः संसार मिथ्याज्ञान मात्र कारण वाला नहीं है।" यहाँ यह हेतु असिद्ध भी नहीं है।
1 संसारकारणतत्त्वम् । 2 मिथ्याज्ञाननिवृत्तौ। 3 कस्यचिन्मिथ्याज्ञानं नास्ति तथापि संसारोऽस्ति । (ब्या० प्र०) 4 सूत्रधारादि । (ब्या० प्र०)
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