Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 454
________________ चार्वाक मत निरास ] प्रथम परिच्छेद [ ३७१ विरोधस्य द्विष्ठत्वाच्च' न क्रियायाः स्वात्मनि विरोधः । क्रियावदात्मा क्रियायाः स्वात्मेति चेत्कथं तत्र विरोधः ? 'क्रियावत्येव सर्वस्याः क्रियायाः प्रतीतेरविरोधसिद्धेः । अथ क्रिया, करणं निष्पादनं स्वात्मनि विरुद्धमित्यभिमतं तर्हि न ज्ञानं स्वरूपं निष्पादयतीत्युच्यते येन विरोधः स्यात् । इत्यसिद्धः स्वात्मनि 10क्रियाविरोध: "स्वकारणविशेषानिष्पद्यमानस्य ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशनरूपत्वात् प्रदीपस्य स्वपरोद्योतनरूपत्ववत् । यथैव हि रूपज्ञानोत्पत्तौ प्रदीपः सहकारित्वाच्चक्षुषो रूपस्योद्योतकः कथ्यते तथा स्वरूपज्ञानोत्पत्तौ तस्य सहकारित्वात्स्वरूपोद्द्योतकोपि । ततो ज्ञानं स्वपररूपयोः परिच्छेदक 17तत्राज्ञाननिवृत्तिहेतुत्वान्यथानुपपत्तेः । विरोधात्" स्वात्मा में क्रिया का विरोध है । जैनाचार्यों ने तब प्रश्न किया कि धात्वर्थलक्षण क्रिया का विरोध है या परिस्पंदात्मक क्रिया का? प्रथम पक्ष लेने से पृथ्वी आदि पदार्थों में अस्तित्व आदि क्रियाओं का विरोध हो जाने से उनका अभाव हो जावेगा। यदि दूसरा पक्ष लेवें तो प्रश्न यह होता है कि क्रिया का स्वात्मा कौन है ? उत्तर में तीन विकल्प हो सकते हैं-क्रिया की आत्मा (स्वरूप) स्वात्मा, क्रियावान् आत्मा स्वात्मा या करना, बनाना आदि अर्थ रूप क्रिया स्वात्मा हैं ? पहले विकल्प में क्रिया का स्वरूप स्वात्मा मानने से स्वात्मा में विरोध नहीं हो सकता है क्योंकि किसी भी पदार्थ का अपने स्वरूप से विरोध नहीं होता है। दूसरे पक्ष में क्रियावान् द्रव्य में ही क्रिया पायी जाती है। द्रव्य को छोड़कर क्रिया नहीं रह सकती अतः विरोध नहीं है। तीसरे पक्ष में करने, बनाने रूप क्रिया को स्वात्मा में कोई भी नहीं मानते हैं तब विरोध की बात ही नहीं है। सारांश यह निकला कि ज्ञान रूप आत्मा में जानने रूप क्रिया का विरोध न होने से सभी ज्ञान स्वसंवेदी-अपने को जानने वाले हैं और पर को भी जानने वाले हैं। ___ अतः स्वात्मा में क्रिया का विरोध असिद्ध है । ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप अपने-अपने कारण विशेष से उत्पन्न होता हुआ ज्ञान स्वपर प्रकाशक है जैसे दीपक स्वपर को उद्योतित करता है । जिस प्रकार रूपज्ञान की उत्पत्ति में दीपक सहकारी होने से चक्षु इन्द्रिय के रूप का प्रकाशक कहा जाता है उसी प्रकार दीपक अपने स्वरूप के ज्ञान की उत्पत्ति में भी सहकारी होने से अपने स्वरूप दीपक को भी प्रकाशित करता है इसलिये ज्ञान स्वपर का परिच्छेदक है अन्यथा अज्ञान की निवृत्ति हो नहीं 1 शीतोष्णयोरिव । (ब्या० प्र०) 2 एकस्थत्वात् । (ब्या० प्र०) 3 क्रियावतः पदार्थस्य स्वरूपं स्वशब्दस्य स्वकीयार्थत्वात् । (ब्या० प्र०) 4 क्रियास्यास्तीति क्रियावान् । स चासौ आत्मा च क्रियावदात्मा। 5 द्रव्ये । 6 स्वस्य ज्ञानस्य स्वरूपे। (ब्या० प्र०) 7 काकुः । (ब्या० प्र०) 8 जनः। 9 अपि तु न । 10 ज्ञानं स्वरूपं निष्पादयतीति नोच्यते कुतः । (ब्या० प्र०) 11 क्षयोपशमलक्षण । (ब्या० प्र०) 12 आवरणक्षयोपशमादिविशेषात । 13 तैलादिस्वकारणनिष्पाद्यमानस्य । (ब्या० प्र०) 14 प्रदीपस्य परप्रकाशनत्वमेव न स्वरूपप्रकाशकत्वं येन दृष्टांत: स्यादित्याशंकायामाह । (ब्या० प्र०) 15 तथा प्रदीपः घट विशिष्टज्ञानोत्पत्तौ तस्य ज्ञानस्य सहकारित्वात् स्वरूपस्य घटविशिष्टज्ञानम्योद्योतको भवति--दि. प्र.। 16 तस्य ज्ञानस्य सहकारित्वात्। 17 स्वपररूपयोः। 18 स्वपररूपपरिच्छेदकत्वाभावे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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