Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 482
________________ सांख्याभिमत मोक्ष कारण खण्डन ] प्रथम परिच्छेद [ ३६६ [ सांख्याभिमतमोक्षकारणतत्त्वस्य खण्डनं ] 'तद्विज्ञानमात्रं न परनिःश्रेयसकारणं, प्रकर्षपर्यन्तावस्थायामप्यात्मनि शरीरेण सहावस्थानान्मिथ्याज्ञानवत् । न तावदिहासिद्धो हेतुः, सर्वज्ञानामपि कपिलादीनां स्वयं प्रकर्षपर्यन्तावस्थाप्राप्तस्यापि ज्ञानस्य शरीरेण सहावस्थानोपगमात् । साक्षात्सकलार्थज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं शरीराभावे कुतोयमाप्तस्योपदेशः प्रवर्तते ? अशरीरस्याप्तस्योपदेशकरणविरोधादाकाशवत् । 'तस्यानुत्पन्ननिखिलार्थज्ञानस्योपदेश इति चेन्न', तस्याप्रमाणत्वशङ्काऽनिवृत्तेरन्या ज्ञानपुरुषोपदेशवत् । यदि पुनः शरीरान्तरानुत्पत्तिनिश्रेयसं न गृहोतशरीरनिवृत्तिः । तस्य साक्षात्सकलतत्त्वज्ञानं कारणं, न तु गृहीतशरीरनिवृत्ते:12, फलोपभोगात्तदुपगमात् । [ सांख्य के द्वारा मान्य मोक्ष के कारण का खडन ] सांख्य-विज्ञान मात्र ही मोक्ष का कारण है अर्थात् प्रकृति और पुरुष का भेद विज्ञान मात्र ही परंनिःश्रेयस का कारण है। ऐसा सांख्यों का कहना है। ये लोग चारित्र को बिल्कुल ही मानने को तैयार नहीं हैं। जैन-विज्ञान मात्र ही परंनिःश्रेयस (मोक्ष) का कारण नहीं है क्योंकि आत्मा में सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाले ज्ञान का प्रकर्ष पर्यंत अवस्था-चरम सीमा के हो जाने पर भी आत्मा थ अवस्थान पाया जाता है। जैसे मिथ्याज्ञान के रहने पर भी शरीर के साथ अवस्थान पाया जाता है अर्थात् सर्वज्ञ भगवान् के क्षायिक अनंतज्ञान की पूर्णता हो चुकी है फिर भी अघातिया कर्मों के शेष रहने से परमौदारिक शरीर पाया जाता है । यह हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है। आपके यहाँ भी ज्ञान के प्रकर्ष पर्यंत अवस्था को प्राप्त हो जाने पर भी कपिल आदि सर्वज्ञों का शरीर के साथ अवस्थान माना है । यदि सम्पूर्ण पदार्थों को जानने में समर्थ ऐसे ज्ञान की उत्पत्ति के अनन्तर ही शरीर का अभाव हो जावे तो पुनः आप्त का यहाँ उपदेश देना कैसे बनेगा ? क्योंकि अशरीरी आप्त को उपदेश करने का विरोध है जैसे कि अशरीरी आकाश उपदेश नहीं दे सकता है। सांख्य-जिनके निखिल पदार्थ का ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है ऐसे आप्त का उपदेश देना बन जावेगा। जैन-नहीं, जिसके सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है उसके उपदेश में अप्रमाणत्व की शंका दूर नहीं हो सकेगी अज्ञानी पुरुष के उपदेश के समान । 1 मात्रशब्देन दर्शनचारित्रयोनिराशः। 2 सकलार्थसाक्षात्कारितावस्थायाम्। 3 विज्ञानमात्रस्य प्रवर्तमानत्वात् । 4 कापिलादिभिः । 5 ज्ञानोत्पन्नानंतरमिति पा.दि.प्र.। 6 प्रवर्तेत इति, पा. (ब्या० प्र०) 7 सांख्यः प्राह । आप्तस्य 8 जैन आह ।-अनुत्पन्ननिखिलार्थज्ञानस्य पुंस उपदेशस्यासत्यत्वसंभवात् । 9 कपिलादेरन्यपुरुष । (ब्या० प्र०) 10 शरीरान्तरानुत्पत्तिलक्षणस्य । निःश्रेयसस्य । 11 न च इति पा. । (ब्या० प्र०) 12 (गृहीतशरीरनिवृत्ती न सकलतत्त्वज्ञानं कारणं, गृहीतशरीरनिवृत्तौ फलोपभोगस्य कारणत्वात्)। 13 (गृहीतशरीरनिवृत्तिः फलोपगमादेव भवतीत्युपगमात्सांख्यः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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