Book Title: Ashtsahastri Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 479
________________ अष्टसहस्री ३९६ ] [ कारिका ६भ्युपायेन' च बाध्यते प्रदीपनिर्वाणोपमशान्तनिर्वाणवत्' चित्तानां तत्त्वतोऽन्वितत्व'साधनात् सन्तानोच्छेदानुपपत्तेश्च' निरन्वयक्षणक्षयकान्ताभ्युपायेन च मोक्षाभ्युपगमबाधनस्य वक्ष्यमाणत्वात्। [ सांख्यादिमान्यमोक्षकारणतत्त्वमपि निराक्रियते जैनाचार्यः 1 'तथा मोक्षकारणतत्त्वमपि कपिलादिभिर्भाषितं न्यायागमविरुद्धम् । [ सौगत द्वारा अभिमत मोक्ष का खंडन ] सौगत-आस्रव रहित चित्तसंतान को उत्पत्ति का नाम ही मोक्ष है। जैन-आपका भी यह मोक्ष तत्त्व युक्ति और आगम से बाधित है प्रदीप-निर्वाणोपम शांत निर्वाण के समान है क्योंकि वास्तव में चित्त ज्ञान क्षणों में अन्वय पाया जाता है । एवं संतानों का सर्वथा उच्छेद भी नहीं हो सकता है तथा च निरन्वय क्षण क्षय को एकांत से स्वीकार करने पर मोक्ष की सिद्धि भी बाधित ही है । इस मत का खंडन आगे हम विशेष रूप से करेंगे । अर्थात् जैसे दोपक बुझ जाने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है वैसे ही निर्वाण के बाद जीव के ज्ञान का अस्तित्व कुछ भी नहीं रहता है । इस मान्यता में अनेकों बाधायें आती हैं। अब जिस प्रकार से अन्य के द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व में बाधायें आती हैं उसी प्रकार से मोक्ष के कारणभूत तत्त्वों में भी बाधायें आती हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं। [ सांख्यादि अन्य मतावलंबियों के द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्त्व भी बाधित ही हैं ] कपिल आदि के द्वारा कहे गये मोक्ष के कारण तत्त्व भी न्याय-युक्ति और आगम से विरुद्ध हो हैं । अर्थात् यहाँ तक अन्य लोगों के द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व में दूषण दिखाया है अब मोक्ष के उपायभूत तत्त्वों में जो अन्य लोगों की भिन्न-भिन्न मान्यतायें हैं उन पर विचार किया जा रहा है। 1 आगमेन । 2 प्रदीपस्य निर्वाणोपमं तच्च तच्छान्तनिर्वाणं च। यथा प्रदीपनिर्वाणं युक्त्यागमेन च बाध्यते । 3 सकलचित्तसंतानोच्छित्तिवत् । परममुक्तवत् । (ब्या० प्र०) 4 ज्ञानानां सान्वयत्वेन साधनात् । 5 द्रव्यसमन्वितः। (ब्या० प्र०) 6 द्वितीयपरिच्छेदे सन्तान: समुदायश्चेति कारिकायां वक्ष्यमाणत्वात् । 7 मानसानां परमार्थतोनुगतत्वं साध्यते मानसानां सन्तानोच्छेदश्च न संभवतीति हेतद्वयात् । 8 यसः । (ब्या०प्र०) 9 यथा मोक्षतत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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